Tuesday 4 October 2011

आओ प्रधानमन्त्री बनना खेलें

                                      आओ प्रधानमन्त्री बनना खेलें

                                                        मिथलेश शरण चौबे
 यदि कोई अप्रत्याशित बवंडर नहीं आता तो केंद्र की वर्तमान यूपीए सरकार पांच साल तक राज करेगी और अगले लोकसभा चुनाव 2014 में ही होंगे|इस अवधि में भले ही मंहगाई आम जनता का जीना और भी मुश्किल कर दे,किसानों की आत्महत्याएं और बढ़ने लगें,2 जी -कामनवेल्थ घोटालों से भी बड़े भ्रष्टाचार के खेल बढ़ते चले जाएं,जनता के बीच से उठी सामाजिक परिवर्तन की आवाजों का तानाशाहीपूर्वक दमन भी सरकार के चतुर मंत्रियों और पार्टी के बड़बोले घोषित-अघोषित प्रवक्ताओं द्वारा किया जाता रहे लेकिन सरकार चलती रहेगी| इसे चाहे लोकतंत्र की मजबूरी कहा जाए या भारतीय जनता की नियति कोई फर्क नहीं पड़ता|

अब  जबकि 2014 तक का समय एक बड़े मैदान की तरह फैला है क्यों न हम इस दौरान प्रधानमन्त्री बनना खेलें|हमारे देश में अधिकांश मुख्यमंत्री पुनः सत्ता में आना अपना सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य बताते हैं|तमाम राजनैतिक पार्टियां किसी भी कीमत पर सत्ता पर काबिज होना चाहती हैं|
मुख्यमंत्री और पार्टियां अपने वर्तमान कर्तव्यों से किनारा कर आगामी चुनाव पर ऐसे ध्यान केन्द्रित करती हैं जैसे चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करना सिर्फ इसलिए जरूरी है कि अगली बार फिर चुनाव जीतकर सत्ता हासिल कि जा सके|मुख्यमंत्रियों की राज्य के प्रतिसुशासन की जवाबदेही और राजनैतिक पार्टियों के सामाजिक सरोकार तथा आम जनता की पक्षधरता सिरे से गायब रहती है|
यदि ऐसा नहीं होता तो केंद्र की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा अभी से प्रधानमन्त्री बनने के जुमले में इस कदर नहीं घिरती|भ्रष्टाचार,मंहगाई जैसे मुद्दों पर लगातार आम जनता को छलती केंद्र सरकार की करतूतों के खिलाफ विपक्ष को जिस नैतिक जिम्मेवारी से सरकार को कटघरे में खड़ा करना था तथा अपनी पार्टी शासित राज्यों में इन मुद्दों पर एक साफ़ आइना केंद्र को दिखाना था,भाजपा वह नहीं कर पा रही है|बल्कि केंद्र सरकार से असंतुष्ट जनता को वह चुनाव का खाद्य पदार्थ समझकर अपनी अगली सरकार बनने का अपर्याप्त अनुमान लगा रही है|
अब जाहिर है कि सत्ता मिलेगी तो किसी न किसी को प्रधानमन्त्री भी बनना है इसलिए शुरू हुआ 'आओ प्रधानमन्त्री बनना खेलें' जैसा असमय होता लज्जास्पद खेल|कुशल राजनेता इस छोटी सी बात को भी भूल जाते हैं कि अब कांग्रेस और भाजपा नहीं यूपीए और एनडीए की सरकारें बनती हैं,बन सकती हैं|अब इतना भूलते हैं तो कुछ-कुछ और भूलने लगते हैं जैसे लालकृष्ण आडवाणी अपनी उम्र|
यदि आडवाणी नहीं तो कौन के उत्तर में एक राज्य में विकास का झंडा लहराने के दम पर नरेन्द्र मोदी,लोकसभा में मोर्चा संभालती सुषमा स्वराज,राज्यसभा में पार्टी और पार्टी में खुद को संभालते अरुण जेटली,किसान नेता की छवि भुनाते राजनाथ सिंह जैसे नाम गूंजते हैं|
हालांकि अभी इनकी गूंज आपस में ही टकराती है और दूसरे सक्षम मौन का निरादर भी करती है जैसे जसवंत सिंह,यशवंत सिन्हा,नीतीश कुमार या फिर आरएसएस द्वारा निर्देशित कोई अन्य जाना-अनजाना|    ऐसे में जब एनडीए अर्थात भाजपा के अनेक चेहरे प्रधानमन्त्री बनना खेल रहे हैं,यूपीए अर्थात कांग्रेस से सिर्फ एक खिलाड़ी आगामी मैदान पर है,परिवार प्रदत्त हैसियत के दम पर|
हालांकि हमें ऐसे खेल को देखना भी बंद करना चाहिए जिसमें मंहगाई,भ्रष्टाचार,किसानों की आत्महत्या,आतंकवाद,असफल अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों पर व्यवस्थित पारदर्शी नीतियों और समृद्ध खुशहाल सुरक्षित देश के लिए बृहद और स्पष्ट कार्ययोजना के प्रकटीकरण के बजाय सर्वोच्च पद को हथियाना ही एकमात्र लक्ष्य हो|लेकिन हम देश की अभिशप्त जनता न तो आंखें और कान बंद कर सकते हैं और न ही इस खेल में लिप्त राजनेताओं और पार्टियों को समझा सकते हैं कि बंद करो यह -'आओ प्रधानमन्त्री बनना खेलें'|