Friday 13 December 2013

                लीक से हटकर

                                    मिथलेश शरण चौबे             

              भले ही संख्या कुछ कम रह गयी पर दिल्ली ने सचमुच दिल जीत लिया|धर्म जाति भाषा क्षेत्रीयता जैसे बेमानी और संकीर्ण दायरों में संगठित रहने को अभिशप्त मतदाताओं ने सारे लबादों को उतार फेंक अपने समय की सच्चाई से पूरी निपटता से जूझने का निर्णायक यत्न किया है|सत्ता शक्ति धन प्रबंधन परिवार मुखौटे विकास बयान प्रलोभन सब के सब धरे रह गए|अतीत की परिणति में तब्दील न हो सकीं जिन व्यापक सक्रिय चेष्टाओं का हम अफ़सोस मनाते आये हैं उनसे एक बार उबरने का गौरवमय समय दिल्ली के मतदाताओं ने दिया है| बार-बार गलत समझे जाने तथा आलोचकों के तीक्ष्ण प्रहारों के बावजूद राजनीति के दरिया में पहली बार डूब रहे लोगों ने नेक नीयत के आत्मबल पर पराक्रम के साथ तैरने और लगभग पार लगने का उल्लेखनीय कर्म साकार किया है|
           यह सब एक ऐसे समय में घटित हुआ जिसमें हम 'कुछ भी नहीं होगा','सब कुछ इसी तरह चलेगा'के नियतिवाद से आक्रान्त हो चुके हैं|धन,शक्ति,खौफ,षड़यंत्र,गठजोड़ के सहारे दूषित हो चुकी राजनीति चंद लोगों की परस्पर अदला-बदली का खेल बन चुकी है|कहने के लिए पढ़े-लिखे और समझदार होने के बावजूद हम नित नई संकीर्णताओं में बंधते चले जा रहे हैं| सत्ता पाने और बचाने के ही काम में जुटी पार्टियों को विज्ञापन,घोषणा पत्र और सभाओं में दिए जाने वाले भाषणों के अलावा आम मनुष्य से कोई मतलब नहीं रहा|पूंजीपतियों-अपराधियों के कन्धों पर अपने अस्तित्व को टिकाये पार्टियों के जरूरी कर्त्तव्य उनके हितों का संरक्षण और उन्हें  दंड से बचाना ही रह गया है|
           एक ऐसे समय में जब एक राज्य का मुख्यमंत्री पुनः सत्ता में आना अपना एकमात्र लक्ष्य मानता है|गांधी के देश में हिंसा को सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल कर एक मुख्यमंत्री देश का प्रमुख बनना चाहता है|जाति और धर्म की घोषित खेमेबाजी में लगे एक नेताजी दंगों से निपटने में नहीं खुद के प्रधानमन्त्री बनने की कवायद में संलग्न हैं|किसी ने जानवरों के भोजन से स्वयं को तृप्त किया है तो किसी ने संघर्ष से उतरकर  स्मरणीय बनने की चाह में सरकारी खजाने को लुटाया है|दस बरस सत्ता में रहकर अपने राज्य को बदहाल कर कोई अनर्गल प्रलापों से राजनीति को और भी पतित करने में तत्पर है|
           एक ऐसे समय में जब देश में वंचितों-शोषितों के लिए चल रहे अनेक जनांदोलनों को कुचलने की भरसक कोशिशें की जातीं हैं| संसद में सड़क पर उतरे हुए लोगों का उपहास किया जाता है|विस्थापितों की सूनी पथराई आँखों में महीन सी झिलमिलाती जीवनाकांक्षा को पढ़ने और बचाने में वर्षों से लगी एक स्त्री की आवाज अनसुनी की जाती है|अपने वेतन-भत्तों को बढ़ाने में एकस्वर हो जाती धवनियों में तेरह बरस से एक बेतुके और निरीह लोगों के लिए जघन्य क़ानून के खिलाफ भूखी-प्यासी पूर्वोत्तर की युवती को बिसरा दिया जाता है| आत्महत्या करते किसान अलक्षित रह जाते हैं,स्त्रियों के शोषण पर सिर्फ बहस हुआ करती है,हजारों मनुष्य अब तक सिर पर मैला ढोते हैं,योजनाओं से अनजान कुपोषित बच्चों की संख्या लाखों में है|अघोषित सामंतवाद आज तक क्रियाशील है,अल्पसंख्यकों को सिर्फ वोट समझा जाता है,असंख्य गरीब और दलित हाशिये का हिस्सा हैं|                
                दिल्ली के मतदाताओं ने बटन दबाकर अंगुली में निशान लगवाने को जवाबदेही से लेते हुए  एक बड़ी जड़ता को तोड़ने का साहसिक कर्म किया है|दबाव व प्रलोभन के बिना जनता द्वारा साधारण हैसियत के अनेक प्रतिनिधि चुने जाना क्या हमारे समय की एक असाधारण घटना नहीं है!क्या इसे हम राजनीति में लघुमानव की प्रतिष्ठा का समय नहीं कहेंगे!यह सामंतवाद परिवारवाद धन शक्ति प्रभुत्व के तिलिस्म का एकदम से भरभरा जाना है|आज की नयी पीढ़ी को लोहिया और जेपी को नजदीक से समझने का अवसर भी मिला है|नियतिवाद से ग्रस्त पूरे देश की बहुसंख्यक जनता को एक कौंध की तरह उम्मीद मिलेगी जिसके सहारे यदि उसने समयानुकूल सही,साहसिक और परिवर्तनकारी निर्णय लिए तो समय का ऊँट जनता की करवट ही बैठेगा|स्वयं कुछ सार्थक नहीं करनेवालों की एक व्यापक आबादी ऐसी भी है जो दूसरों की सक्रियता की निंदा व  अपने अनुरूप काम करने की सलाह में ज्यादा रूचि रखती है|यदि हमें सोचने की स्वतंत्रता मिली है तो क्यों न हम एक संभावनामय भविष्य के बारे में विचार करें|सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की पंक्तियाँ याद आ रही हैं-'लीक पर वे चलें जिनके/चरण दुर्बल और हारे हैं/हमें तो जो हमारी यात्रा से बने/ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं' |

                                                                                                                     

Friday 15 November 2013

पंत पेशवा

               मिथलेश शरण चौबे

                       वे फिर आ रहे हैं|पहले भी वे और उनके जैसे ही उनके अग्रज आते रहे हैं|कुछ समय के लिए उदारता का मुखौटा लगाकर आते हैं वे और हमें छलकर चले जाते हैं|हमें जो नहीं चाहिए उसे देने के संकल्प लेते हैं|जो हमें सबसे जरूरी है उस पर कुछ भी नहीं कहते|उनमें से कुछ लेपटाप और स्कूटी बांटने के वादे से हमें भरमाना चाहते हैं|उन्हीं में से कुछ ने हमारे बुजुर्गों को तीर्थयात्रा करवाकर लुभाने की कोशिश की|लाडलियों को लक्ष्मी बनाने का दंभ भरते वे उन पर रोज-रोज होती रहती बर्बरता से मुंह फेरते रहे हैं|
                     उनमें  से कुछ धर्म और विकास के खोखले पुतले के नाम पर जनता को प्रभावित करने में लगे हैं तो कुछ, एक  परिवार को करुण कथा की तरह पेश कर हमदर्दी बटोरना चाहते हैं,कुछ लोग साम्प्रदायिकता के ध्रुवीकरण के सहारे हैं और कुछ बहुजन हिताय से सत्ता की आकांक्षा में सर्वजन हिताय तक अपने विस्तार को दिखाकर लुभाने की कोशिश में लगे हैं|कुछ लोग क्षेत्रीयता की संकीर्ण राह  को साधन की तरह इस्तेमाल कर अपना वजूद बचा रहे हैं|सत्ता प्राप्ति और उसे कायम रखने की लड़ाई में सामान्य जन का निरीह और संघर्षशील जीवन तथा उसकी बेहद जटिल चुनौतियां लगभग विलुप्त हैं|
                      वे फिर आ रहे हैं एक राजा एक महाराजा की तरह|दंभ टपकता है उनसे|अनेक बर्बरों-अमानुषों को पनाह देने और इतिहास के शासक साम्राज्य के खास सिपहसालार होने का तमगा उनके पास है|उन्हें लगता है कि लालच की तरह वे अपनी घोषणाओं का जाला फेकेंगे और लोग उनमें फसते चले जायेंगे|हालांकि उनका आंकलन जनता के बारे में गलत कहाँ होता है|बार-बार छली जाती  जनता पता नहीं किस अदृश्य उम्मीद में या फिर अपनी नियति मानकर सबकुछ सहती रहती है और उन्हीं के जाल में फसती रहती है|कोई प्रतिरोध-परिवर्तन की संभावना वह नहीं देख पाती|बर्बरों के पोषक,अयोग्य,संवेदनहीन और  हमेशा सत्ता पर काबिज रहने की दुर्नीति को अपनाने वालों के प्रति  जनता की उदारता,आतिथ्य-भाव व सहिष्णुता बहुत कारुणिक लगती है|

                     वे आते रहे हैं| जनता के हिस्से को हमेशा  हड़पने वाले|जनता को धिक्कारने वाले|जनविरोधी काम करने वाले|जनता उनके मायाजाल में फसकर उनको जगह देने अपनी ही निर्मितियों को नष्ट कर देती है|जनता जिन्हें सड़क से उठाकर सत्ता तक पहुंचाती है वे ही जनता के लिए सबसे बड़े खौफ की वजह बन जाते हैं|वे आते रहे हैं,वे फिर आ रहे हैं|इस समय के चुनावी परिदृश्य में वरिष्ठ हिंदी कवि चंद्रकांत देवताले की कविता ‘पंत पेशवा शहर में आ रहा है’ अत्यंत मार्मिक व सच को सच्चे अर्थों में चरितार्थ करती लगती है- ‘अपने अदृश्य अनगिन पैरों से/पेट पर लात मारने वाला/बस्ती में आ रहा है/उसके स्वागत के लिए द्वार बनाने में जुट जाओ/लतियाए हुए लोगो/तुम्हारी उदारता दर्ज की जायेगी इतिहास में, / अपने हुक्मनामों से लाखों को/उजाड़ने वाला पंत पेशवा/शहर में आ रहा है/उसके अभिनन्दन के लिए बगीचों को नंगा कर दो/धकियाए हुए लोगो तुम्हारा आतिथ्य अमर हो जाएगा इतिहास में, / जिसे सड़क से उठा सिंहासन पर बिठाया तुमने/और बदले में जिसने/दुस्वप्नों के जंगली कुत्तों को छोड़ा तुम्हारी नींद में/वही दयालु प्रभु/आ रहा है फांसीघर का शिलान्यास करने/जय दुन्दुभी बजाने में कोई कसर नहीं रहे/सताए हुए लोगो/तुम्हारी सहिष्णुता सदियों चर्चित रहेगी इतिहास में ! ‘
                                                                                                          

Wednesday 2 October 2013


बुद्धीजीवी और मीडिया

               मिथलेश शरण चौबे

         दिल्ली की सत्ता का युद्ध शुरू हो चुका है|अनेक पार्टियों के गुट यूपीए व एनडीए किसी तीसरी संभावना से बेखबर आपस में ही चुनौती मानकर जूझने लगे हैं|उपलब्धियां दोनों के पास बहुत कम और विफलताएं व दाग बहुत ज्यादा हैं|एक के पास पिछले दस बरस से गिरती अर्थव्यवस्था,मंहगाई,भ्रष्टाचार,किसानों की आत्महत्याएं,लचर प्रशासन के रूप में अर्जित ऐसी पूंजी है जिसे किसी भी तरह छिपाना संभव नहीं|दूसरे के पास आग कि लपटें हैं,धर्म की चमकदार तलवार है,विकास का खोखला पुतला है,अपनी उन्नति के लिए हिंसा से गुरेज नहीं जैसी स्पष्ट अमानवीय पृष्ठभूमि है|दोनों के पास बड़बोलों की कमी नहीं है जो अपने कृत्यों को महान और दूसरे के किये धरे को निकृष्ट व जघन्य बताते रहते हैं|एक पर परिवार का नियंत्रण है तो दूसरे पर संघ परिवार का|दोनों की कार्यप्रणालियों से कभी ऐसा नहीं लगता कि इनको सामान्य जन के बेहतर जीवन की किंचित भी आकांक्षा है|एक के पास दिखाने के लिए फिलहाल एक ईमानदार मुखौटा है,हालांकि उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि ईमानदारी कायर और निर्णयविहीन रहकर घिसटते हुए अपना समय नहीं काटती|दूसरे के पास धर्मान्धता के सहारे देश के अमन को समय-समय पर क्षति पहुंचाती संघ की कार्यप्रणाली है जिसने राजनीति से दूर रहने की दिखावटी चेष्टाओं के साथ ही हमेशा सिर्फ और सिर्फ दुर्नीति की है| उसी संघ की कृपा पर गोधरा कि लपटों से तपकर आये एक  पूरी तरह असहिष्णु,अनुदार,असमानता के प्रकट हिमायती और निरंकुश नेता जिनका धर्म-कर्म सभी संघ को खुश रखने तक ही सीमित है,अब दूसरे गुट के पालनहार है|

        यूपीए और एनडीए को अपने उत्कर्ष और सत्ता प्राप्ति के लिए किसी को भी नेता मानने और बनाने का अधिकार है,वे वही कर रहे है|अपनी कमियों और विफलताओं पर  राजनैतिक पार्टियां हमेशा परदा डालती हैं और निरर्थक-सी बातों को जन हितैषी सार्थक उप्लाप्ब्धियों की तरह बड़े पैमाने पर प्रसारित कर उनका चुनावी फायदा उठाती हैं|’जनता के पास बहुत विकल्प नहीं होते’ जैसे निरुपाय जुमले के सहारे किसी को तो फायदा मिल ही जाता है| ऐसी स्थिति  में जबकि दोनों बड़े राष्ट्रीय गुट राहत देने में असमर्थ , जन से विमुख ,बड़ी समस्याओं के प्रति बेपरवाह ,भ्रष्टाचार के पोषक और सिर्फ सत्ता लोलुप साबित हो रहे हैं आखिर जनता का क्या रुख होना चाहिए और समाज को व्यापक प्रभावित कर सकने के  सामर्थ्यधारी बुद्धीजीवी और मीडिया की क्या भूमिकाएं हो सकती हैं जनता को उचित राह दिखाने के लिए |जिनकी बातें गौर से सुनी जाती हैं उनकी नैतिक जिम्मेदारी भी बनती है सही भाष्य की|

       अधिकांश मीडिया में कुछ समय से एनडीए घोषित नेता को इस अंदाज से प्रस्तुत किया जा रहा है मानो एक चमत्कार के रूप में वह नेता अवतरित है,जनता की प्रतीक्षा को दूर कर वही शासन करेगा और पिछले दस वर्षों की विसंगतियों को खत्म कर वह विकास की आंधी लाएगा|अभी चुनाव भी नहीं हुए,अभी जनता ने अपना मत व्यक्त ही नहीं किया अभी से कोई तीसमारखां कैसे बताया जा सकता है,पर यह लगातार हो रहा है|हम जिसे यथार्थ का आइना दिखाकर सही-गलत में फर्क करने की तमीज सिखाने वाला मानते हैं उसकी यह व्यग्रता संदेह की ओर ले जाती है| नरेन्द्र मोदी का स्तुतिगान हर तरह से अतिवाद का ही साक्ष्य है,और पिछले जघन्य घटनाक्रमों को भुलाने की कुचेष्टा भी है|

         अनेक बुद्धीजीवी चिंतित हैं और किसी भी तरह हिंसा की लपटों पर तपकर आये असहिष्णु को देश के शीर्षस्थ पद पर आसीन होते देखना नहीं चाहते|इस हेतु वे अपने बयानों से चिंता व जागरूकता का सन्देश जाहिर कर रहे हैं|अधिकांश मीडिया जिस सायास तरह से नरेन्द्र मोदी के पक्ष में दिखाई दे रही है उसके विपरीत अनायास तरह से एनडीए की साम्प्रदायिकता व नरेन्द्र मोदी की प्रत्यक्ष निंदा यूपीए के पक्ष में दिखाई देने लगती है|किसी एक की जघन्यता से आगाह करने में दूसरे असफल को कृपांक मिल जाना बहुत अफसोसजनक है|

        जरूरत दोनों की अतियों के वास्तविक स्वरूप को उजागर कर किसी ईमानदार विकल्प को तलाश करने की है|अपने आस-पास यदि सजग भाव से हम देखें तो यह भी संभव हो सकता है|नियति को मानकर इन्हीं दोनों विकल्पों में अपने चयन की तलाश बुद्धीजीवी होने का प्रमाण तो नहीं ही देगी|मीडिया को विश्वास की और लौटना होगा जो अब तक जनता करती है अन्यथा समय के साथ छलों की कथाएं इतिहास कभी नहीं भूलता|  

                                                                                                                                             

Wednesday 28 August 2013


अभियक्ति के बारे में

                               मिथलेश शरण चौबे

            यह सही है कि हमें अपने विचारों-भावनाओं को व्यक्त करने की स्वतंत्रता हमेशा मिलनी चाहिए और जो तथाकथित मूर्ख कट्टरता के बावजूद कमोबेश मिली भी है| इस बात की पैरवी बहुसंख्यक लोग करते हैं और जब यह स्वतन्त्रता संकट में आती है तब प्रतिरोध के अनेक स्वर भी मुखरित होते हैं|मनुष्य का सारा ज्ञान,विवेक,विचार,कल्पना,प्रतिभा,अनुभव तब तक कोई सार्वजनिक व विशेष अर्थ नहीं रखते जब तक वह उन्हें सच्चे रूप में व्यक्त नहीं करता|लेकिन अभिवयक्ति का आत्मानुशासन भी होना चाहिए|हम जीवन के तमाम पक्षों पर यदि नैतिक होना चाहते हैं तो अभिवयक्ति की नैतिकता को भी स्वीकार करना चाहिए|
जब हम कुछ बोलते या लिखते हैं तो कदाचित हम तो उससे मुक्त हो जाते हैं लेकिन वे कहे या लिखे शब्द ठीक उसके बाद अपना काम शुरू करते हैं , अन्यों तक संप्रेषित होकर अपने को चरितार्थ करते हैं| जाहिर है उनका प्रभावशील क्षेत्र व्यापक होता चला जाता है और इसीलिये उनका असर अन्यों पर पड़ता है|कहने को भले ही एक व्यक्ति बोलते,लिखते या विभिन्न कला माध्यमों द्वारा अपनी अभिवयक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल ही करता है किन्तु अनायास ही वह एक बड़े फलक को अपने व्यक्त से अतिक्रमित करता है|साहित्य संगीत नृत्य चित्र आदि कला माध्यम अपनी स्वाभाविकता में ही स्वतंत्रता,मूल्य ,मानवीय कल्याण के सूक्ष्म आशयों से निहित रहते हैं इनका अतिक्रमण हमारे संसार को सुन्दर जागरूक उत्साही ही बनाता है ,यह अभिव्यक्ति रोजमर्रा की बोलने अथवा लिखने की सरलीकृत अभिव्यक्ति से अलग होती है|
हमारे लिए अभिव्यक्ति का वह सरलीकृत रूप घातक है जिसमें अन्यों की चिंता का भाव शामिल नहीं रहता सिर्फ अपनी भड़ास को प्रकट करने की बेमानी मंशा ही रहती है |स्तरहीन निंदा , लोकप्रियता और अपनी ओर ध्यानाकर्षित कराने की छिछली आकांक्षा ही कुछ भी अनर्गल व्यक्त करने को विवश करती है | हमारे यहाँ दूसरे के ह्रदय को कष्ट पहुंचाने वाली वाणी को भी हिंसक माना गया है लेकिन अपने गुबार को निकालने की व्यग्रता ने इस हिंसा को नजरअंदाज कर दिया |राजनेताओं के बयान ऐसी अराजक अभिव्यक्ति के ज्वलंत उदाहरण बनते जा रहे हैं जिन्हें सुनकर आम मनुष्य का आहत होना अब सामान्य सी बात है| कम पैसों में गुजर बसर के कुतर्क,जघन्य घटनाओं की हास्यास्पद व्याख्याएं , सड़क पर संघर्ष कर रहे लोगों का उपहास आदि ऐसी ही अनर्गल अभिवक्ति के साक्ष्य हैं|
हिंदी साहित्य में भी आरोपों-प्रत्यारोपों ने आज ऐसा असहिष्णु संसार निर्मित कर दिया है कि इसे साहित्यिक मानना बहुत उदारतापूर्वक भी संभव नहीं लगता | सबके अपने प्रिय-अप्रिय हैं,दूसरों के बारे में निर्णायक बोलने कि व्यग्रता है,अपने तय सांचे के अनुकूल के प्रति अत्यंत उदारता और प्रतिकूल के विरुद्ध कठोरता का विवेकहीन प्रलाप है |असहमति-बेबाकी-मुखरता की साहित्यिक भंगिमा हो सकती है और यदि यह क्षीण पड़ती जा रही है तो क्या कविता-कथा आदि की नितांत साहित्यिक चेष्टा किसी अन्य तरह असाहित्यिक रूप ले सकती हैं ऐसा मान लेना असह्य लगता है |हिंदी के अलावा अन्य भारतीय व विदेशी भाषाओं के विमर्शों में यह स्तरहीन प्रलाप नहीं है|
अपनी अभिव्यक्ति के समय यदि हमें दूसरों के कष्टों का तनिक भी ध्यान रहेगा तो हम अनायास ही अभिव्यक्ति की नैतिकता को पा सकेंगे|


Tuesday 16 July 2013

दृश्यकथा

               मिथलेश शरण चौबे


मुफीद इंतजाम करना था
मुल्क की खुशहाली के लिए वहाँ बैठकर
ज्यादा ठीक के लिए अनिवार्य विचार
सुदूर गाँवों-नगरों की आवाम की
जरूरतों को पहचानकर
उन्हें मनुष्य-भर जी पाने की
अदद उम्मीद के जरूरी इंतजामों पर बहस करना थी

सुरक्षित और सुकून से रहे आवाम
एक मुकम्मल मुल्क होने से मिलीं
सारी आजादियाँ दिलाकर उन्हें
आजाद जीवन देने का
अपरिहार्य कर्म करना था

करोड़ों रुपये प्रति मिनिट खर्च होते हैं
उनके वहाँ होने पर
बत्तीस रुपये में पेट नहीं भरता
कर्ज और आपदाओं में लगातार
मौत को चुन रहे हैं किसान
विकास के भूत से
रोजमर्रा के संकट नहीं भागते
एक इमारत के संडास पर
लाखों रुपये खर्च करने वाले समय में
आज भी सिर पर मैला ढ़ोते हैं आदमी
पैसठ बरस पहले स्वाधीन हो चुके देश में


यहाँ बैठे हुए लोग आम आदमी से
शालीनता की अपील करते हैं
मर्यादा का पाठ पढ़ाते हैं
हदों में रहने की सीख देते हैं
कुछ तो विरोध को कुचलना भी
गलत नहीं मानते
बहुतों पर बड़े-बड़े दाग हैं
जिन पर नहीं हैं उन पर चिपकी हैं
अनंत चुप्पियाँ
ईमानदारी नैतिकता वहाँ से
निर्वासित हो चुकी हैं
कुछ सही लोग भी होंगे निष्क्रिय

कभी भी पदासीन होने का गुमान वहाँ तैरता है
अब भी प्रतीक्षा में रहने की बैचेनी मंडराती है

गली-मुहल्लों के लड़ाई-झगड़ों से
ज्यादा गर्हित होती है लड़ाई यहाँ
हट्ट-हट्ट बोलकर
आम आदमी की अभिव्यक्ति का
मजाक बना रहा है
एक मसखरा यहाँ
चीखकर चिल्लाकर
गरीबी आत्महत्या
मंहगाई भ्रष्टाचार को
मुखर ही नहीं होने देते यहाँ पर
हिंदी बोल सकने के बावजूद
अंग्रेजी में अटपटा सा बोलते लोग

टेलीविजन में उनके तमाशे देखकर
लोग अब चौकते नहीं हैं
कोई आश्चर्य नहीं करते
दोनों तरफ की सधी-सधाई पटकथा पर
लोग अपनी निरुपायता पर
भले ही क्षुब्ध हों अपनी जुबां को
ख़राब करना नहीं चाहते

पढ़े-लिखे समझदार कहे जाने वाले
बहुसंख्यक लोगों को इसमें कोई रूचि नहीं है
इस सबसे छेड़खानी करना उन्हें
सिरफिरे लोगों की महत्वाकांक्षा लगती है और
उन्हें दुःख है कि कविता में नृत्य में नाटक में
अब जनता की रुचि नहीं रही
चौबीसों घंटे रोजमर्रा के संघर्षों में
पिसती रियाया का कोई सौंदर्यबोध ही नहीं है
अलबत्ता इतना जरूर कहते हैं बुद्धिजीवी कि
कलाएं अब हाशिये पर हैं
पता नहीं क्यों उस इमारत में बैठे
नुमाइंदों की तरफ धीरे-धीरे
सरक रहे हैं वे

तार-तार हो रही मनुष्यता
सामंतों के क़दमों में
पल रही राजनीति
आम आदमी को वहाँ पहुँचने की
चुनौती देता है
अपने ही घर में अपनी पत्नी की
जमानत जब्त करा चुका एक मंत्री
लोहिया-जेपी के पीछे
चलते-चलते नेता हुए लोग
पूँजीवाद के बड़े और भद्दे दाग बन चुके हैं और
उन्हीं का नाम लेकर
अनर्गल भाषा में क्रूरता से
झल्लाते हैं आम आदमी पर
गाँधी यदि होते तो क्या उनको बख्शते
उन्हीं का नाम लेकर चलने वाले लोग

जिनका जो काम होना चाहिए
उसके सिवा उन्हें और भी काम हैं
और जिन्हें उन पर प्रश्नचिह्न लगाना चाहिए
वे अपनी बारी की व्यग्रता में डूबे हैं
हालांकि अपने वेतन भत्ते सुविधाओं पर
मिनिटभर में आमराय बना लेते हैं
अब तक बड़ी राष्ट्रीय समस्याओं पर
मतैक्य न बन पाए लोग

भूख से गरीबी से शोषण से
प्राकृतिक आपदाओं से
भ्रष्टाचार से मंहगाई से
लड़ते जूझते आम मनुष्य को
बहुत दूर से दिखाई देती
उस भव्य इमारत के
अन्दर के दृश्य निराश करते हैं
उनकी दमघौटू बेचैनी
निरुपाय है
गलेंगे खपेंगे मरेंगे
एक दिन वे सभी
खुले आसमान में जी भर के
सांस ले पाने का उनका
स्वप्न अब भी जीवित है

इतिहास में दर्ज हैं
कई खंडहर हो चुकी भव्यताएं

जिन्दगी सपना दिखाती है
कभी वह सच में भी
बदल सकता है ।


कविता के स्वप्न की तरह
स्वप्न में आती है एक कविता
कविता के स्वप्नों से बेखबर
ढेर सारी बची हुई
कामना को तिरोहित कर

साथ में लाई भाषा को
टटोलकर भाषा से बाहर
अपने को पाने के
यत्न की थकान पर
जैसे रोज आएगी नहीं
के साथ आना चाहती
रोज रोज

उसे घेर लेती
स्वप्न की बेतरतीब बनावटें
खारिज करती
बेमानी इच्छाएं
कविता होने से अपदस्थ करता
स्वप्न का बेरुखा अंदाज

लय गति
ठहराव बेचैनी को
फिर भी बचा लेती
रचने के यत्न को
रचने की आकांक्षा को
न रच पाने के क्षोभ को

आती तो है लेकिन
जल्द ही लौटती है
अधबनी कविता की तरह

स्वप्न में आई कविता
कविता के स्वप्न की तरह।

Friday 7 June 2013

हिंसा के विरुद्ध

                      - मिथलेश  शरण चौबे


                     मनुष्य का अतीत से अब तक का सफ़र हिंसा से आक्रान्त रहा है,बुद्ध पुरुषों-धर्मग्रंथों आदि के अहिंसा सम्बन्धी आग्रहों के बावजूद मानव जाति हिंसा की पनाहगार बनी रही| भले ही बोलचाल में हम ऐसा मानते रहे कि हिंसा कुछ उद्दंड लोगों का कायर हथियार है लेकिन बहुसंख्यक आबादी का प्रतिरोध न करना भी उन्हीं हिंसक लोगों के पक्ष में खड़े होने जैसा है |हम आज भी दैनिक जीवन में देखते हैं कि जो लोग आक्रामक होकर कोई काम करा लेते हैं वही काम विनयपूर्वक निवेदन पर कतई नहीं होता |यह दरअसल हिंसा को स्वीकृति देने की शुरुआत है|
                     छत्तीसगढ़ की ताजा हिंसक वारदात के बहुत सारे विश्लेषण हो सकते हैं जिनमें अपनी-अपनी सामाजिक राजनैतिक समझ और निष्ठा की धार शामिल रहेगी किन्तु सरल अर्थ में हम इसे मनुष्य के लगातार और हिंसक होते चले जाने तथा हिंसा की बढ़ती स्वीकार्यता की तरह ही देखें |आम आदमी और ख़ास आदमी का चलताऊ फर्क हम भले ही करते हैं लेकिन हिंसा के सामने ये अंतर बेमानी हैं, बल्कि यहीं आकर सबकी हैसियत एकमेक हो जाती है जो कि दरअसल होती ही है | राजनैतिक पार्टियों का काम अपने विचारों यदि उनके पास कुछ रहते हों तो,को सार्थक मानना व दूसरी पार्टियों की नीतियों-कृत्यों की निंदा करना उन्हें जन विरोधी साबित करना है ,यह काम सारी पार्टियां तत्परता के साथ करती हैं |चुनाव में जिन मसलों को फसल की तरह काटा जा सके उन्हें मुद्दा बनाना भी उनका परम कर्तव्य होता है |
                   हिंसा वह विकृत अमानवीय हथियार है जिसका चरम लक्ष्य समूचे जीवन को नष्ट करना ही है ,यहाँ कोई मेरा तुम्हारा नहीं है यहाँ जो है वो मारा जा सकता है ,जो अभी नहीं है के मारे जाने के जरूरी इंतजाम हैं,या कोई जन्म ही न हो ऐसी जीवन विरोधी मंशा है| हम एक घटना की सतही व्याख्या कर मुक्ति पा लेते हैं,उस मूल विषय को नजरअंदाज करते हैं जिसके चलते घटनाएं होती हैं|हिंसा से कोई नहीं बच सकता स्वयं हिंसा के अस्त्र से मनुष्य को इच्छित नियंत्रण में रखने का मुगालता पाले बैठे  अमानुष |
                   राजनैतिक  नेतृत्व की इच्छाशक्ति के अभाव का रोना रोते हुए बहुत समय बीत रहा है |उनका काम सही सिरे से समस्या को निराकृत करना है भी नहीं ,वह सभी मनुष्यों का काम हैं |किसी करिश्माई व्यक्तित्व के अवतरण की प्रतीक्षा करना अपनी जवाबदेही से बचना है |हम आत्मावलोकन करें कि कैसे बहुत छोटी घटनाएं या स्थितियां अंततः हिंसक रूप ले लेती हैं और उनसे हम कितनी आसानी से बच सकते हैं| हमारे आसपास बहुतायत होती रहती बेवजह की आक्रामक घटनाओं पर हमारा रवैया उदासीन और संवेदनहीनता की ओर क्यों चला जाता है|दूसरों के अतिक्रमण को हम सरलता से स्वीकृति-सी क्यों देने  लगे हैं |  हमारी अपनी जरूरतें क्यों दूसरे के अतिक्रमण से पूरी होती हैं|आखिर क्यों विनय,संवेदना,संगति से सरककर हम निर्मम,संवेदनहीन,अराजक होने की तरफ चले जाते हैं|मानवीय प्रतिक्रियाएं क्यों अपर्याप्त लगने लगी हैं|
खुद तो हम भाषा में वाणी में व्यवहार में कठोर होते जा रहे हैं और समूचे परिवेश में पसरती जा रही असहिष्णुता पर क्षुब्ध भी होते हैं|दरअसल कुछ जीवन मूल्य नामक बातें थीं वे हमारी स्मृति में भी संभवतया अब नहीं रहीं|कभी जब बड़ी घटनाएं होती हैं तो वे अचानक कौंध जाती हैं| 
        गांधी की बातें न समझने तथा उन्हें अपर्याप्त व अप्रासंगिक  मानने के फैशन भरे वक़्त में हमें उन्हीं के सामने घुटने टेककर अपने लिए एक अहिंसक समय की दरकार करना होगी, अहिंसा यदि हमारा जीवन मूल्य फिर बनेगा तभी हम एक कारगर चुनौती दे सकते हैं हिंसा को |