Friday 7 June 2013

हिंसा के विरुद्ध

                      - मिथलेश  शरण चौबे


                     मनुष्य का अतीत से अब तक का सफ़र हिंसा से आक्रान्त रहा है,बुद्ध पुरुषों-धर्मग्रंथों आदि के अहिंसा सम्बन्धी आग्रहों के बावजूद मानव जाति हिंसा की पनाहगार बनी रही| भले ही बोलचाल में हम ऐसा मानते रहे कि हिंसा कुछ उद्दंड लोगों का कायर हथियार है लेकिन बहुसंख्यक आबादी का प्रतिरोध न करना भी उन्हीं हिंसक लोगों के पक्ष में खड़े होने जैसा है |हम आज भी दैनिक जीवन में देखते हैं कि जो लोग आक्रामक होकर कोई काम करा लेते हैं वही काम विनयपूर्वक निवेदन पर कतई नहीं होता |यह दरअसल हिंसा को स्वीकृति देने की शुरुआत है|
                     छत्तीसगढ़ की ताजा हिंसक वारदात के बहुत सारे विश्लेषण हो सकते हैं जिनमें अपनी-अपनी सामाजिक राजनैतिक समझ और निष्ठा की धार शामिल रहेगी किन्तु सरल अर्थ में हम इसे मनुष्य के लगातार और हिंसक होते चले जाने तथा हिंसा की बढ़ती स्वीकार्यता की तरह ही देखें |आम आदमी और ख़ास आदमी का चलताऊ फर्क हम भले ही करते हैं लेकिन हिंसा के सामने ये अंतर बेमानी हैं, बल्कि यहीं आकर सबकी हैसियत एकमेक हो जाती है जो कि दरअसल होती ही है | राजनैतिक पार्टियों का काम अपने विचारों यदि उनके पास कुछ रहते हों तो,को सार्थक मानना व दूसरी पार्टियों की नीतियों-कृत्यों की निंदा करना उन्हें जन विरोधी साबित करना है ,यह काम सारी पार्टियां तत्परता के साथ करती हैं |चुनाव में जिन मसलों को फसल की तरह काटा जा सके उन्हें मुद्दा बनाना भी उनका परम कर्तव्य होता है |
                   हिंसा वह विकृत अमानवीय हथियार है जिसका चरम लक्ष्य समूचे जीवन को नष्ट करना ही है ,यहाँ कोई मेरा तुम्हारा नहीं है यहाँ जो है वो मारा जा सकता है ,जो अभी नहीं है के मारे जाने के जरूरी इंतजाम हैं,या कोई जन्म ही न हो ऐसी जीवन विरोधी मंशा है| हम एक घटना की सतही व्याख्या कर मुक्ति पा लेते हैं,उस मूल विषय को नजरअंदाज करते हैं जिसके चलते घटनाएं होती हैं|हिंसा से कोई नहीं बच सकता स्वयं हिंसा के अस्त्र से मनुष्य को इच्छित नियंत्रण में रखने का मुगालता पाले बैठे  अमानुष |
                   राजनैतिक  नेतृत्व की इच्छाशक्ति के अभाव का रोना रोते हुए बहुत समय बीत रहा है |उनका काम सही सिरे से समस्या को निराकृत करना है भी नहीं ,वह सभी मनुष्यों का काम हैं |किसी करिश्माई व्यक्तित्व के अवतरण की प्रतीक्षा करना अपनी जवाबदेही से बचना है |हम आत्मावलोकन करें कि कैसे बहुत छोटी घटनाएं या स्थितियां अंततः हिंसक रूप ले लेती हैं और उनसे हम कितनी आसानी से बच सकते हैं| हमारे आसपास बहुतायत होती रहती बेवजह की आक्रामक घटनाओं पर हमारा रवैया उदासीन और संवेदनहीनता की ओर क्यों चला जाता है|दूसरों के अतिक्रमण को हम सरलता से स्वीकृति-सी क्यों देने  लगे हैं |  हमारी अपनी जरूरतें क्यों दूसरे के अतिक्रमण से पूरी होती हैं|आखिर क्यों विनय,संवेदना,संगति से सरककर हम निर्मम,संवेदनहीन,अराजक होने की तरफ चले जाते हैं|मानवीय प्रतिक्रियाएं क्यों अपर्याप्त लगने लगी हैं|
खुद तो हम भाषा में वाणी में व्यवहार में कठोर होते जा रहे हैं और समूचे परिवेश में पसरती जा रही असहिष्णुता पर क्षुब्ध भी होते हैं|दरअसल कुछ जीवन मूल्य नामक बातें थीं वे हमारी स्मृति में भी संभवतया अब नहीं रहीं|कभी जब बड़ी घटनाएं होती हैं तो वे अचानक कौंध जाती हैं| 
        गांधी की बातें न समझने तथा उन्हें अपर्याप्त व अप्रासंगिक  मानने के फैशन भरे वक़्त में हमें उन्हीं के सामने घुटने टेककर अपने लिए एक अहिंसक समय की दरकार करना होगी, अहिंसा यदि हमारा जीवन मूल्य फिर बनेगा तभी हम एक कारगर चुनौती दे सकते हैं हिंसा को |