Tuesday 16 July 2013

दृश्यकथा

               मिथलेश शरण चौबे


मुफीद इंतजाम करना था
मुल्क की खुशहाली के लिए वहाँ बैठकर
ज्यादा ठीक के लिए अनिवार्य विचार
सुदूर गाँवों-नगरों की आवाम की
जरूरतों को पहचानकर
उन्हें मनुष्य-भर जी पाने की
अदद उम्मीद के जरूरी इंतजामों पर बहस करना थी

सुरक्षित और सुकून से रहे आवाम
एक मुकम्मल मुल्क होने से मिलीं
सारी आजादियाँ दिलाकर उन्हें
आजाद जीवन देने का
अपरिहार्य कर्म करना था

करोड़ों रुपये प्रति मिनिट खर्च होते हैं
उनके वहाँ होने पर
बत्तीस रुपये में पेट नहीं भरता
कर्ज और आपदाओं में लगातार
मौत को चुन रहे हैं किसान
विकास के भूत से
रोजमर्रा के संकट नहीं भागते
एक इमारत के संडास पर
लाखों रुपये खर्च करने वाले समय में
आज भी सिर पर मैला ढ़ोते हैं आदमी
पैसठ बरस पहले स्वाधीन हो चुके देश में


यहाँ बैठे हुए लोग आम आदमी से
शालीनता की अपील करते हैं
मर्यादा का पाठ पढ़ाते हैं
हदों में रहने की सीख देते हैं
कुछ तो विरोध को कुचलना भी
गलत नहीं मानते
बहुतों पर बड़े-बड़े दाग हैं
जिन पर नहीं हैं उन पर चिपकी हैं
अनंत चुप्पियाँ
ईमानदारी नैतिकता वहाँ से
निर्वासित हो चुकी हैं
कुछ सही लोग भी होंगे निष्क्रिय

कभी भी पदासीन होने का गुमान वहाँ तैरता है
अब भी प्रतीक्षा में रहने की बैचेनी मंडराती है

गली-मुहल्लों के लड़ाई-झगड़ों से
ज्यादा गर्हित होती है लड़ाई यहाँ
हट्ट-हट्ट बोलकर
आम आदमी की अभिव्यक्ति का
मजाक बना रहा है
एक मसखरा यहाँ
चीखकर चिल्लाकर
गरीबी आत्महत्या
मंहगाई भ्रष्टाचार को
मुखर ही नहीं होने देते यहाँ पर
हिंदी बोल सकने के बावजूद
अंग्रेजी में अटपटा सा बोलते लोग

टेलीविजन में उनके तमाशे देखकर
लोग अब चौकते नहीं हैं
कोई आश्चर्य नहीं करते
दोनों तरफ की सधी-सधाई पटकथा पर
लोग अपनी निरुपायता पर
भले ही क्षुब्ध हों अपनी जुबां को
ख़राब करना नहीं चाहते

पढ़े-लिखे समझदार कहे जाने वाले
बहुसंख्यक लोगों को इसमें कोई रूचि नहीं है
इस सबसे छेड़खानी करना उन्हें
सिरफिरे लोगों की महत्वाकांक्षा लगती है और
उन्हें दुःख है कि कविता में नृत्य में नाटक में
अब जनता की रुचि नहीं रही
चौबीसों घंटे रोजमर्रा के संघर्षों में
पिसती रियाया का कोई सौंदर्यबोध ही नहीं है
अलबत्ता इतना जरूर कहते हैं बुद्धिजीवी कि
कलाएं अब हाशिये पर हैं
पता नहीं क्यों उस इमारत में बैठे
नुमाइंदों की तरफ धीरे-धीरे
सरक रहे हैं वे

तार-तार हो रही मनुष्यता
सामंतों के क़दमों में
पल रही राजनीति
आम आदमी को वहाँ पहुँचने की
चुनौती देता है
अपने ही घर में अपनी पत्नी की
जमानत जब्त करा चुका एक मंत्री
लोहिया-जेपी के पीछे
चलते-चलते नेता हुए लोग
पूँजीवाद के बड़े और भद्दे दाग बन चुके हैं और
उन्हीं का नाम लेकर
अनर्गल भाषा में क्रूरता से
झल्लाते हैं आम आदमी पर
गाँधी यदि होते तो क्या उनको बख्शते
उन्हीं का नाम लेकर चलने वाले लोग

जिनका जो काम होना चाहिए
उसके सिवा उन्हें और भी काम हैं
और जिन्हें उन पर प्रश्नचिह्न लगाना चाहिए
वे अपनी बारी की व्यग्रता में डूबे हैं
हालांकि अपने वेतन भत्ते सुविधाओं पर
मिनिटभर में आमराय बना लेते हैं
अब तक बड़ी राष्ट्रीय समस्याओं पर
मतैक्य न बन पाए लोग

भूख से गरीबी से शोषण से
प्राकृतिक आपदाओं से
भ्रष्टाचार से मंहगाई से
लड़ते जूझते आम मनुष्य को
बहुत दूर से दिखाई देती
उस भव्य इमारत के
अन्दर के दृश्य निराश करते हैं
उनकी दमघौटू बेचैनी
निरुपाय है
गलेंगे खपेंगे मरेंगे
एक दिन वे सभी
खुले आसमान में जी भर के
सांस ले पाने का उनका
स्वप्न अब भी जीवित है

इतिहास में दर्ज हैं
कई खंडहर हो चुकी भव्यताएं

जिन्दगी सपना दिखाती है
कभी वह सच में भी
बदल सकता है ।


कविता के स्वप्न की तरह
स्वप्न में आती है एक कविता
कविता के स्वप्नों से बेखबर
ढेर सारी बची हुई
कामना को तिरोहित कर

साथ में लाई भाषा को
टटोलकर भाषा से बाहर
अपने को पाने के
यत्न की थकान पर
जैसे रोज आएगी नहीं
के साथ आना चाहती
रोज रोज

उसे घेर लेती
स्वप्न की बेतरतीब बनावटें
खारिज करती
बेमानी इच्छाएं
कविता होने से अपदस्थ करता
स्वप्न का बेरुखा अंदाज

लय गति
ठहराव बेचैनी को
फिर भी बचा लेती
रचने के यत्न को
रचने की आकांक्षा को
न रच पाने के क्षोभ को

आती तो है लेकिन
जल्द ही लौटती है
अधबनी कविता की तरह

स्वप्न में आई कविता
कविता के स्वप्न की तरह।