Wednesday 28 August 2013


अभियक्ति के बारे में

                               मिथलेश शरण चौबे

            यह सही है कि हमें अपने विचारों-भावनाओं को व्यक्त करने की स्वतंत्रता हमेशा मिलनी चाहिए और जो तथाकथित मूर्ख कट्टरता के बावजूद कमोबेश मिली भी है| इस बात की पैरवी बहुसंख्यक लोग करते हैं और जब यह स्वतन्त्रता संकट में आती है तब प्रतिरोध के अनेक स्वर भी मुखरित होते हैं|मनुष्य का सारा ज्ञान,विवेक,विचार,कल्पना,प्रतिभा,अनुभव तब तक कोई सार्वजनिक व विशेष अर्थ नहीं रखते जब तक वह उन्हें सच्चे रूप में व्यक्त नहीं करता|लेकिन अभिवयक्ति का आत्मानुशासन भी होना चाहिए|हम जीवन के तमाम पक्षों पर यदि नैतिक होना चाहते हैं तो अभिवयक्ति की नैतिकता को भी स्वीकार करना चाहिए|
जब हम कुछ बोलते या लिखते हैं तो कदाचित हम तो उससे मुक्त हो जाते हैं लेकिन वे कहे या लिखे शब्द ठीक उसके बाद अपना काम शुरू करते हैं , अन्यों तक संप्रेषित होकर अपने को चरितार्थ करते हैं| जाहिर है उनका प्रभावशील क्षेत्र व्यापक होता चला जाता है और इसीलिये उनका असर अन्यों पर पड़ता है|कहने को भले ही एक व्यक्ति बोलते,लिखते या विभिन्न कला माध्यमों द्वारा अपनी अभिवयक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल ही करता है किन्तु अनायास ही वह एक बड़े फलक को अपने व्यक्त से अतिक्रमित करता है|साहित्य संगीत नृत्य चित्र आदि कला माध्यम अपनी स्वाभाविकता में ही स्वतंत्रता,मूल्य ,मानवीय कल्याण के सूक्ष्म आशयों से निहित रहते हैं इनका अतिक्रमण हमारे संसार को सुन्दर जागरूक उत्साही ही बनाता है ,यह अभिव्यक्ति रोजमर्रा की बोलने अथवा लिखने की सरलीकृत अभिव्यक्ति से अलग होती है|
हमारे लिए अभिव्यक्ति का वह सरलीकृत रूप घातक है जिसमें अन्यों की चिंता का भाव शामिल नहीं रहता सिर्फ अपनी भड़ास को प्रकट करने की बेमानी मंशा ही रहती है |स्तरहीन निंदा , लोकप्रियता और अपनी ओर ध्यानाकर्षित कराने की छिछली आकांक्षा ही कुछ भी अनर्गल व्यक्त करने को विवश करती है | हमारे यहाँ दूसरे के ह्रदय को कष्ट पहुंचाने वाली वाणी को भी हिंसक माना गया है लेकिन अपने गुबार को निकालने की व्यग्रता ने इस हिंसा को नजरअंदाज कर दिया |राजनेताओं के बयान ऐसी अराजक अभिव्यक्ति के ज्वलंत उदाहरण बनते जा रहे हैं जिन्हें सुनकर आम मनुष्य का आहत होना अब सामान्य सी बात है| कम पैसों में गुजर बसर के कुतर्क,जघन्य घटनाओं की हास्यास्पद व्याख्याएं , सड़क पर संघर्ष कर रहे लोगों का उपहास आदि ऐसी ही अनर्गल अभिवक्ति के साक्ष्य हैं|
हिंदी साहित्य में भी आरोपों-प्रत्यारोपों ने आज ऐसा असहिष्णु संसार निर्मित कर दिया है कि इसे साहित्यिक मानना बहुत उदारतापूर्वक भी संभव नहीं लगता | सबके अपने प्रिय-अप्रिय हैं,दूसरों के बारे में निर्णायक बोलने कि व्यग्रता है,अपने तय सांचे के अनुकूल के प्रति अत्यंत उदारता और प्रतिकूल के विरुद्ध कठोरता का विवेकहीन प्रलाप है |असहमति-बेबाकी-मुखरता की साहित्यिक भंगिमा हो सकती है और यदि यह क्षीण पड़ती जा रही है तो क्या कविता-कथा आदि की नितांत साहित्यिक चेष्टा किसी अन्य तरह असाहित्यिक रूप ले सकती हैं ऐसा मान लेना असह्य लगता है |हिंदी के अलावा अन्य भारतीय व विदेशी भाषाओं के विमर्शों में यह स्तरहीन प्रलाप नहीं है|
अपनी अभिव्यक्ति के समय यदि हमें दूसरों के कष्टों का तनिक भी ध्यान रहेगा तो हम अनायास ही अभिव्यक्ति की नैतिकता को पा सकेंगे|