Friday 15 November 2013

पंत पेशवा

               मिथलेश शरण चौबे

                       वे फिर आ रहे हैं|पहले भी वे और उनके जैसे ही उनके अग्रज आते रहे हैं|कुछ समय के लिए उदारता का मुखौटा लगाकर आते हैं वे और हमें छलकर चले जाते हैं|हमें जो नहीं चाहिए उसे देने के संकल्प लेते हैं|जो हमें सबसे जरूरी है उस पर कुछ भी नहीं कहते|उनमें से कुछ लेपटाप और स्कूटी बांटने के वादे से हमें भरमाना चाहते हैं|उन्हीं में से कुछ ने हमारे बुजुर्गों को तीर्थयात्रा करवाकर लुभाने की कोशिश की|लाडलियों को लक्ष्मी बनाने का दंभ भरते वे उन पर रोज-रोज होती रहती बर्बरता से मुंह फेरते रहे हैं|
                     उनमें  से कुछ धर्म और विकास के खोखले पुतले के नाम पर जनता को प्रभावित करने में लगे हैं तो कुछ, एक  परिवार को करुण कथा की तरह पेश कर हमदर्दी बटोरना चाहते हैं,कुछ लोग साम्प्रदायिकता के ध्रुवीकरण के सहारे हैं और कुछ बहुजन हिताय से सत्ता की आकांक्षा में सर्वजन हिताय तक अपने विस्तार को दिखाकर लुभाने की कोशिश में लगे हैं|कुछ लोग क्षेत्रीयता की संकीर्ण राह  को साधन की तरह इस्तेमाल कर अपना वजूद बचा रहे हैं|सत्ता प्राप्ति और उसे कायम रखने की लड़ाई में सामान्य जन का निरीह और संघर्षशील जीवन तथा उसकी बेहद जटिल चुनौतियां लगभग विलुप्त हैं|
                      वे फिर आ रहे हैं एक राजा एक महाराजा की तरह|दंभ टपकता है उनसे|अनेक बर्बरों-अमानुषों को पनाह देने और इतिहास के शासक साम्राज्य के खास सिपहसालार होने का तमगा उनके पास है|उन्हें लगता है कि लालच की तरह वे अपनी घोषणाओं का जाला फेकेंगे और लोग उनमें फसते चले जायेंगे|हालांकि उनका आंकलन जनता के बारे में गलत कहाँ होता है|बार-बार छली जाती  जनता पता नहीं किस अदृश्य उम्मीद में या फिर अपनी नियति मानकर सबकुछ सहती रहती है और उन्हीं के जाल में फसती रहती है|कोई प्रतिरोध-परिवर्तन की संभावना वह नहीं देख पाती|बर्बरों के पोषक,अयोग्य,संवेदनहीन और  हमेशा सत्ता पर काबिज रहने की दुर्नीति को अपनाने वालों के प्रति  जनता की उदारता,आतिथ्य-भाव व सहिष्णुता बहुत कारुणिक लगती है|

                     वे आते रहे हैं| जनता के हिस्से को हमेशा  हड़पने वाले|जनता को धिक्कारने वाले|जनविरोधी काम करने वाले|जनता उनके मायाजाल में फसकर उनको जगह देने अपनी ही निर्मितियों को नष्ट कर देती है|जनता जिन्हें सड़क से उठाकर सत्ता तक पहुंचाती है वे ही जनता के लिए सबसे बड़े खौफ की वजह बन जाते हैं|वे आते रहे हैं,वे फिर आ रहे हैं|इस समय के चुनावी परिदृश्य में वरिष्ठ हिंदी कवि चंद्रकांत देवताले की कविता ‘पंत पेशवा शहर में आ रहा है’ अत्यंत मार्मिक व सच को सच्चे अर्थों में चरितार्थ करती लगती है- ‘अपने अदृश्य अनगिन पैरों से/पेट पर लात मारने वाला/बस्ती में आ रहा है/उसके स्वागत के लिए द्वार बनाने में जुट जाओ/लतियाए हुए लोगो/तुम्हारी उदारता दर्ज की जायेगी इतिहास में, / अपने हुक्मनामों से लाखों को/उजाड़ने वाला पंत पेशवा/शहर में आ रहा है/उसके अभिनन्दन के लिए बगीचों को नंगा कर दो/धकियाए हुए लोगो तुम्हारा आतिथ्य अमर हो जाएगा इतिहास में, / जिसे सड़क से उठा सिंहासन पर बिठाया तुमने/और बदले में जिसने/दुस्वप्नों के जंगली कुत्तों को छोड़ा तुम्हारी नींद में/वही दयालु प्रभु/आ रहा है फांसीघर का शिलान्यास करने/जय दुन्दुभी बजाने में कोई कसर नहीं रहे/सताए हुए लोगो/तुम्हारी सहिष्णुता सदियों चर्चित रहेगी इतिहास में ! ‘