Wednesday 2 October 2013


बुद्धीजीवी और मीडिया

               मिथलेश शरण चौबे

         दिल्ली की सत्ता का युद्ध शुरू हो चुका है|अनेक पार्टियों के गुट यूपीए व एनडीए किसी तीसरी संभावना से बेखबर आपस में ही चुनौती मानकर जूझने लगे हैं|उपलब्धियां दोनों के पास बहुत कम और विफलताएं व दाग बहुत ज्यादा हैं|एक के पास पिछले दस बरस से गिरती अर्थव्यवस्था,मंहगाई,भ्रष्टाचार,किसानों की आत्महत्याएं,लचर प्रशासन के रूप में अर्जित ऐसी पूंजी है जिसे किसी भी तरह छिपाना संभव नहीं|दूसरे के पास आग कि लपटें हैं,धर्म की चमकदार तलवार है,विकास का खोखला पुतला है,अपनी उन्नति के लिए हिंसा से गुरेज नहीं जैसी स्पष्ट अमानवीय पृष्ठभूमि है|दोनों के पास बड़बोलों की कमी नहीं है जो अपने कृत्यों को महान और दूसरे के किये धरे को निकृष्ट व जघन्य बताते रहते हैं|एक पर परिवार का नियंत्रण है तो दूसरे पर संघ परिवार का|दोनों की कार्यप्रणालियों से कभी ऐसा नहीं लगता कि इनको सामान्य जन के बेहतर जीवन की किंचित भी आकांक्षा है|एक के पास दिखाने के लिए फिलहाल एक ईमानदार मुखौटा है,हालांकि उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि ईमानदारी कायर और निर्णयविहीन रहकर घिसटते हुए अपना समय नहीं काटती|दूसरे के पास धर्मान्धता के सहारे देश के अमन को समय-समय पर क्षति पहुंचाती संघ की कार्यप्रणाली है जिसने राजनीति से दूर रहने की दिखावटी चेष्टाओं के साथ ही हमेशा सिर्फ और सिर्फ दुर्नीति की है| उसी संघ की कृपा पर गोधरा कि लपटों से तपकर आये एक  पूरी तरह असहिष्णु,अनुदार,असमानता के प्रकट हिमायती और निरंकुश नेता जिनका धर्म-कर्म सभी संघ को खुश रखने तक ही सीमित है,अब दूसरे गुट के पालनहार है|

        यूपीए और एनडीए को अपने उत्कर्ष और सत्ता प्राप्ति के लिए किसी को भी नेता मानने और बनाने का अधिकार है,वे वही कर रहे है|अपनी कमियों और विफलताओं पर  राजनैतिक पार्टियां हमेशा परदा डालती हैं और निरर्थक-सी बातों को जन हितैषी सार्थक उप्लाप्ब्धियों की तरह बड़े पैमाने पर प्रसारित कर उनका चुनावी फायदा उठाती हैं|’जनता के पास बहुत विकल्प नहीं होते’ जैसे निरुपाय जुमले के सहारे किसी को तो फायदा मिल ही जाता है| ऐसी स्थिति  में जबकि दोनों बड़े राष्ट्रीय गुट राहत देने में असमर्थ , जन से विमुख ,बड़ी समस्याओं के प्रति बेपरवाह ,भ्रष्टाचार के पोषक और सिर्फ सत्ता लोलुप साबित हो रहे हैं आखिर जनता का क्या रुख होना चाहिए और समाज को व्यापक प्रभावित कर सकने के  सामर्थ्यधारी बुद्धीजीवी और मीडिया की क्या भूमिकाएं हो सकती हैं जनता को उचित राह दिखाने के लिए |जिनकी बातें गौर से सुनी जाती हैं उनकी नैतिक जिम्मेदारी भी बनती है सही भाष्य की|

       अधिकांश मीडिया में कुछ समय से एनडीए घोषित नेता को इस अंदाज से प्रस्तुत किया जा रहा है मानो एक चमत्कार के रूप में वह नेता अवतरित है,जनता की प्रतीक्षा को दूर कर वही शासन करेगा और पिछले दस वर्षों की विसंगतियों को खत्म कर वह विकास की आंधी लाएगा|अभी चुनाव भी नहीं हुए,अभी जनता ने अपना मत व्यक्त ही नहीं किया अभी से कोई तीसमारखां कैसे बताया जा सकता है,पर यह लगातार हो रहा है|हम जिसे यथार्थ का आइना दिखाकर सही-गलत में फर्क करने की तमीज सिखाने वाला मानते हैं उसकी यह व्यग्रता संदेह की ओर ले जाती है| नरेन्द्र मोदी का स्तुतिगान हर तरह से अतिवाद का ही साक्ष्य है,और पिछले जघन्य घटनाक्रमों को भुलाने की कुचेष्टा भी है|

         अनेक बुद्धीजीवी चिंतित हैं और किसी भी तरह हिंसा की लपटों पर तपकर आये असहिष्णु को देश के शीर्षस्थ पद पर आसीन होते देखना नहीं चाहते|इस हेतु वे अपने बयानों से चिंता व जागरूकता का सन्देश जाहिर कर रहे हैं|अधिकांश मीडिया जिस सायास तरह से नरेन्द्र मोदी के पक्ष में दिखाई दे रही है उसके विपरीत अनायास तरह से एनडीए की साम्प्रदायिकता व नरेन्द्र मोदी की प्रत्यक्ष निंदा यूपीए के पक्ष में दिखाई देने लगती है|किसी एक की जघन्यता से आगाह करने में दूसरे असफल को कृपांक मिल जाना बहुत अफसोसजनक है|

        जरूरत दोनों की अतियों के वास्तविक स्वरूप को उजागर कर किसी ईमानदार विकल्प को तलाश करने की है|अपने आस-पास यदि सजग भाव से हम देखें तो यह भी संभव हो सकता है|नियति को मानकर इन्हीं दोनों विकल्पों में अपने चयन की तलाश बुद्धीजीवी होने का प्रमाण तो नहीं ही देगी|मीडिया को विश्वास की और लौटना होगा जो अब तक जनता करती है अन्यथा समय के साथ छलों की कथाएं इतिहास कभी नहीं भूलता|