Sunday 30 November 2014

काला जादू






     मिथलेश शरण चौबे


      चुनाव आयोग को भले ही बेहतर चुनाव की शाबाशियां मिलती रहती हैं लेकिन उसकी नाक के नीचे से लगातार  कुप्रबंधन और नियंत्रणहीनता के जो उदाहरण मिलते हैं वे उसकी साख पर पर्याप्त खरोंच बनाते जा रहे हैं|फर्जी मतदान की देश व्यापी शिकायतों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता| ऐसी कुछ बड़ी घटनाओं के लिए तो साक्ष्य का बहाना लेकर खारिज करने की कोशिश होती ही है पर इव्हीएम मशीन के युग में भी अनेक बाहुबलियों द्वारा व्यापक स्तर पर की जाती फर्जी वोटिंग की कठोर सच्चाई से मुंह फेरना लोकतंत्र के लिए कैसे ठीक हो सकता है|इसके साक्ष्य उन हजारों-लाखों मतदान वंचित लोगों के चेहरों पर मिल जाते हैं जिनके वोट दिए जा चुके होते हैं और वे अपने नागरिक होने का अंगुली चिह्न भी बतौर निशानी हासिल नहीं कर पाते|

      राजनैतिक पार्टियों द्वारा चुनाव के समय किए जाने वाले वायदे इसी श्रंखला की एक और कड़ी हैं जिन पर किसी तरह का नियंत्रण प्रतीत नहीं होता|वायदे तो सभी पार्टियां करती हैं पर सत्ता मिलने पर वायदे के मुताबिक़ काम करने का संयोग कम ही मिलता है|देश की दोनों बड़ी राजनैतिक पार्टियों कांग्रेस-भाजपा ने चुनाव पूर्व के वायदों को तोड़ने में कुछ ज़्यादा ही महारत पेश की है|लोकप्रियता दिलाने वाली कुछ बेमतलब की योजनाओं से अपनी छवि चमकाते भाजपा शासित राज्यों में राशन के सार्वजनिक वितरण में कुप्रबंधन और व्यापक धांधली चुनावी घोषणाओं को तिलांजलि देने का एक ज्वलंत उदाहरण है और इस दौड़ में भी भाजपा अव्वल नजर आती है| ताजा नमूना काला धन मुद्दे पर भाजपा ने समूचे देश के सामने हैरतअंगेज तरीके का प्रस्तुत किया है|कांग्रेस की यूपीए सरकार ने तो काला धन के मसले को सक्रियता से उचित निराकरण की ओर ले जाने में अनिवार्य पहल में ही आनाकानी की|उससे कई कदम आगे दौड़ते हुए भाजपा ने अपने नेताओं,अपने पक्ष में अनर्गल तर्कों से व्यापक माहौल बनाने में जुटे रामदेव की तरह के मौसमी वक्ताओं और दक्षिणपंथ के घोषित पैरवीकार पत्रकारों से काला धन को एक चुनावी मुद्दा बनाने के लिए जो लाभ के फूले गुब्बारे अपने बयानों से बांटे उनने वोट का तात्कालिक फायदा भाजपा को प्रत्याशित रूप से दिया|इन सबने जनता को लाखों रूपये मिलने के सपनों को बांटकर उसे मुंगेरीलाल बनने पर मजबूर कर दिया और आश्चर्य की बात यह कि ऐसा करते हुए इन सबने काला धन प्राप्ति की संभावना के तमाम जटिल पहलुओं का न तो गंभीरता से विश्लेषण किया और न ही विपक्ष में रहते हुए तत्कालीन सत्ता पक्ष के  इस विषय पर संशयग्रस्त रहने के सच को जाना |अनेक देशों की काला धन वापसी पर हुयी समृद्ध आर्थिकी की  ख़बरों को अपने लिए भी सच और हूबहू अनुकरणीय मानने के अविचारित उतावलेपन ने चुनाव के गणित को साधने का एक उम्दा अस्त्र प्रदान किया|  

     यही वजह है की तबके और अबके वित्तमंत्रियों में सिर्फ़ मुखौटों का अंतर है उनके बयानों,कालाधन वापसी की जटिलता के तर्कों और क्रियाशीलता में कोई फ़र्क नजर नहीं आता| पन्द्रह लाख रूपये प्रति नागरिक का हिसाब बताने वाले बाबा-वकील-पत्रकार सब अदृश्य हैं|विदेश यात्राओं,चुनावी राज्यों में नए-नए वायदों और चंद उद्योगपतियों के बड़े हितों में लीन प्रधानमन्त्री जनता के साथ किए गए इस वायदे को कब तक वायदा बने रहने को अभिशप्त करेंगे|व्यक्तिगत जीवन में विश्वासघात व वादाखिलाफी से प्रभावित रिश्तों से दूर होने में तनिक भी देर नहीं करते लोग क्या इस सार्वजनिक विश्वासघात व वादाखिलाफी को चुप रहकर बर्दाश्त कर जायेंगे?क्या चुनाव आयोग को इस तरह के चुनाव पूर्व वायदों को सत्ता प्राप्ति के बाद पूरा न हो पाने की स्थिति में  राजनैतिक दलों पर किसी तरह की पाबंदी का अंकुश नहीं लगाना चाहिए?

                                                                                

Saturday 30 August 2014

भाषिक दायित्त्वबोध












मिथलेश शरण चौबे


अंग्रेजी के वर्चस्व की समयानुकूल व वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता की अनेक तर्कों से दुहाई देते हुए लोग जानबूझकर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की अवहेलना करने लगते हैं|हालांकि भाषाएं अपने साहित्य और बोलचाल की विपुलता से ही अपना व्यापक परिसर बनाती हैं फिर भी अपनी भाषाओं को लेकर सत्ताओं का गैरजिम्मेवार व उदासीन रवैया दूसरी भाषाओं के आक्रान्ताओं को मजबूत अवसर ही प्रदान करता है|अधिकांश सूचना माध्यम भी हिंदी की घोषित दुहाई देकर अंग्रेजीपरस्ती के कुशल प्रस्तोता बनकर मुग्ध हैं|कुछ तो अंग्रेजी के पैरवीकार की तरह पेश आ रहे हैं|अस्सी करोड़ लोगों की अभिव्यक्ति के माध्यम का कुशल निर्वाह करने वाली हिंदी के ऊपर दो लाख लोगों द्वारा प्रयुक्त अंग्रेजी को वरीयता देने की कुत्सित चेष्टा की जा रही है|पैरवीकारों को लगता है कि अब हमें सशक्त बन जाना चाहिए,जिसका एकमात्र फौरी तरीका अंग्रेजी की सत्ता को स्वीकारना और व्यवहारतः उसका प्रयोग करना है|


दरअसल हम भारतीयों की आत्मसमर्पण की जल्दबाजी ने भाषा सहित अपनी किसी भी राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति वह दृढ़ता नहीं बनने दी जो हमारे व्यक्तित्व से निःसृत हो|हम अपनी सांस्कृतिक समृद्धियों पर गुमान तो जरूर करते हैं लेकिन उन्हें सहेजने का कर्म अन्यों पर थोपते हैं|यह खुद के अलावा दूसरे पर थोपने की धारणा इतनी अधिक बलवती है कि हर नागरिक का जैसे कोई दायित्त्व ही नहीं बनता|दूसरी तरफ़ दूसरी संस्कृतियों के प्रति भी हमारा अविचारित आकर्षण है|हम अंग्रेजी बोलने पर गौरवान्वित होते हैं,अंग्रेजी में लिखना और विचार करना पसंद करते हैं परन्तु हम यह भूल जाते हैं कि दूसरी भाषा में अभिव्यक्ति के समय हम अनायास ही उसकी भाषिक शक्ति से अनुशासित होने लगते हैं,उसकी सांस्कृतिक संरचना में शामिल हो जाते हैं|मातृभाषा में सीखना व व्यक्त करना सबसे ज्यादा सुगम व रचनात्मक होने के बारे में तमाम विज्ञों के मतैक्य के बावजूद क्रियान्वयन के स्तर पर दूसरी भाषा का अतिरिक्त आग्रह चौंकाता है|


बाजार के आक्रमण ने हमें जो उपभोक्तावादी मनुष्य बना दिया उससे हम अपनी भाषा को भी सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही मान बैठे,भाषा के साथ मनुष्य का जो गहरा सम्बन्ध होना चाहिए वह नहीं रहा|वह अंतर्मन से प्रकट न होकर सामान्य जरूरत की तरह माध्यम बनी| जाहिर है ऐसे सूचना समय में इस काम के लिए  अंग्रेजी ज्यादा मुफीद लगना थी क्योंकि वह बाजार के अनुकूल है|नतीजन हिंदी हमें अपर्याप्त लगने लगी और हमने उसके  इस्तेमाल में अंग्रेजी का अपनी अल्प समझ से समावेश कर एक खिचड़ी रूप ईजाद कर लिया|विज्ञापन,राजनीति और पत्रकारिता ने अपने श्रेष्ठ होने के प्रदर्शन,सूचना के प्रलोभन और दूसरे के विरोध में तर्क के सुविधानुकूल प्रयोगों से भाषा का एक अस्वाभाविक-सा रूप निर्मित किया| महात्मा गांधी और राम मनोहर लोहिया को एम जी व आर एम एल में तब्दील करने वाली बेमानी संक्षिप्तियों के साथ ही इंटरनेट के हिंग्लिश प्रयोगों ने भाषा का एक और ही विखंडित पाठ ईजाद कर डाला|विडम्बना यह है कि हिंदी से ही जीविकोपार्जन करने वाले तक ऐसा करने में पीछे नहीं रहे बल्कि वे तो कला और यथार्थ के नवाचार व निपट भाष्य की कीमत पर यह सब कर रहे हैं|


हमारे देश में ही असमिया,बांग्ला,तमिल आदि भाषाओं के प्रति स्थानीय लोगों की चेतना ही इस वैश्वीय दिखने के गैरजरूरी दबाव के बावजूद उन्हें सर्वप्रमुख बनाए हुए है| देश से बाहर रूस,जर्मनी,फ्रांस आदि अनेक देशों में अंग्रेजी दूसरी भाषा के रूप में भी स्वीकृति नहीं पा सकी|हमारे देश के सुदूर ग्रामीण इलाकों की  अनेक प्रतिभाएं अंग्रेजी में निपुण न होने के कारण अलक्षित रह जाने को अभिशप्त रहती है वहीं संसार के अनेक देशों में यह भी सम्भव है कि कोई व्यक्ति अपने अनुशासन का राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मूर्धन्य हो और उसे अंग्रेजी में चार वाक्य भी बोलना न आते हों| भाषाएं आपस में एक दूसरे को समृद्ध करती हैं,हम ही उनकी महत्ता को न पहचानकर उन्हें परस्पर विरोधी भूमिका में ले आते हैं| अंग्रेजी को किसी भी अन्य भाषा की तरह जानना और विश्व में ज्ञान, सूचना व बाजार के  सम्प्रेषण के लिए  कुछ ज्यादा ही चलन में होने के कारण प्रमुखता से जान लेना बहुत अच्छी बात है,लेकिन हिंदी भाषा की अवहेलना कर उसके अवमूल्यन की स्थिति तक प्रयोग कर अंग्रेजी पर गौरवान्वित होना एक नितांत असांस्कृतिक और अनैतिक कर्म है| इस अतिशयता से दूर,  हिंदी को अच्छी तरह जानते हुए हमें उसकी भाषिक शक्ति से स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहिए,दायित्त्वबोध के साथ ही यही रचनात्मक भी बन सकेगा|  


                                                                                                              


  



Monday 28 July 2014

विस्थापन का विकास





                 मिथलेश शरण चौबे
       कुछ लोगों की जिंदगी के भयावह संकटों से बहुतों की सुविधाओं के रास्ते बनते हैं|सुविधाओं का निर्णय लेनेवाले और लाभ पानेवाले अक्सर संकटग्रस्त लोगों को विस्मृत ही करते हैं|जैसे-तैसे चल रहे जीवन की गति अचानक उस समय एक नए चाक पर घूमने लगती है जब बिना वाजिब इन्तजाम के नियत स्थिति से ठेलने की कवायद की जाती है|अंधेरे को दूर करने,विकास के पथ पर चलने,संसार को अपनी तरक्की का ग्राफ ऊंचा दिखाने की बिना सुविचारित योजनाओं के हमारे देश में ऐसे निर्णय लिए जाते हैं जैसे कोई शत्रु विध्वंस का ही कोई नया व्यूह रच रहा हो|
      चौड़ी सड़कें,औद्योगिक संयंत्र आदि के लिए किसानों से उर्वर जमीन लेने की अनेक विसंगतियों के साथ ही बांधों की ऊंचाई बढ़ाने के तत्पर निर्णय भी हैरत में डालते हैं|अनेक पूरे-के-पूरे गांव-नगर निर्वासन की पीड़ा भोगने अभिशप्त होते हैं|हजारों मनुष्य,मुश्किल से निर्मित हुए उनके घर,स्कूल,अस्पताल,उपजाऊ जमीन,धार्मिक स्थल,जानवर और उनकी सुरक्षित जगहें,बेघर और समयानुकूल बने उनके ठौर-ठिकाने सब कुछ थोड़े से समय में ऊबे-महत्त्वाकांक्षी-असंवेदनशील लोगों द्वारा लिए निर्णयों की बलि चढ़ जाते हैं|
       चौथे खम्बे के बहुधा सत्तापरस्त समय में सुध लेने वाला कोई कहाँ नजर आ रहा है?वर्ष दो हजार में सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने से पहले उचित विस्थापन के लिए अपना सपष्ट मत जाहिर किया था|सरदार सरोवर बांध परियोजना से अपने सक्रिय होने के तत्काल प्रमाण की लाभाकांक्षा में वर्तमान प्रधानमन्त्री और परियोजना से सर्वाधिक लाभ पानेवाले राज्य गुजरात की मुख्यमंत्री न्यायालय की  इस जनहितैषी मंशा से बहुत  दूर हैं|अपने राज्य के लाभ की कीमत का तर्क इन्हें तो थोड़ा सहारा दे सकता है लेकिन बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बने मध्यप्रदेश के व्यापमं आक्रान्त मुख्यमंत्री की हौसलापस्त स्वीकृति कहीं बन्दर के हाथ में उस्तरे का माकूल उदाहरण ही न बन जाए|
      देश की पांचवी सबसे बड़ी नदी नर्मदा पर बने इस बांध की ऊंचाई लगभग सत्रह मीटर बढ़ा देने से बिजली और सिचाई का अधिकतम लाभ गुजरात को मिलेगा|महाराष्ट्र,राजस्थान भी पर्याप्त लाभप्रद स्थिति में रहेंगे| कुल प्रभावित 63 हजार परिवारों में  45 हजार अत्यंत कम लाभ की संभावना वाले मध्यप्रदेश के हैं|धार जिले के धरमपुरी कस्बे सहित आसपास के 193 गांव जलमग्न होने के कगार पर हैं|इन प्रभावितों में ज्यादातर आदिवासी,छौटे-मंझौले किसान व दुकानदार,मछुआरे व कुम्हार शामिल हैं|मनुष्यों को विस्थापित करने की तथाकथित योजनाओं में उनके सहयोग से घरेलू व उपयोगी जानवरों का तो किंचित विस्थापन हो सकेगा लेकिन पेड़-पौधे,उपजाऊ जमीन के अस्तित्व को नजरंदाज करना कैसे ठीक है?पर्यावरण क्षति के बचाव का कौन सा विस्थापन तरीका अपनाया जाएगा?
       बडवानी,अंजड,कुक्षी,मनावर,धरमपुरी में उठे विरोध के जनस्वर भी क्या जलमग्न हो जायेंगे?संघर्षरत क्षेत्रीय जनता,नर्मदा बचाव आंदोलन व उसकी वर्षों से विस्थापितों के हक में लड़ती आई नेत्री मेधा पाटकर यदि यह मांग करते हैं कि बिना उचित पुनर्वास के बांध की ऊंचाई नहीं बढ़ाना चाहिए,तो इसमें तथाकथित विकास के विरोध की बू कहां से आती है?वातानुकूलितों में बैठकर निर्णय लेनेवालों को वे हजारों बेघर मनुष्य दिखाई नहीं देते जिनका न राशन कार्ड होता है न कोई पहचान|कहां जायेंगे वे?
       मध्यप्रदेश के हरसूद के विस्थापन को मीडिया ने चिन्ता व जिम्मेदारी से उजागर किया था जिससे पता चलता है कि सत्ता,नौकरशाह और परिस्थिति के फायदे से उतपन्न दलाल किस तरह जनता को गुमराह कर सत्ता के निर्णयों का मूक अनुकर्ता बनाने की कवायद में लगे रहते हैं| सिर्फ मनुष्य के विकास और उसकी सुविधा के इन्तजाम करना दरअसल एकांगी विचार और मनुष्यता विरोधी मुहिम है|जानवर,पेड़-पौधे,उर्वर भूमि को नजरंदाज कर आप तथाकथित विकास की नांव कब तक चला पायेंगे?बांध की ऊंचाई और अन्य विकासजन्य वजहों के लिए विस्थापन प्रक्रिया की जल्दबाजी से किसी का विकास हो न हो,विस्थापन का जरूर विकास हो रहा है|
                                                                                                                    

Tuesday 1 July 2014

स्त्री शोषण के विरुद्ध




                मिथलेश शरण चौबे


           शब्द पहले आते हैं,उनसे निकलती अर्थानुभूति का असर बाद में होता है पर यह जो घटित हो रहा है उस पर कहने के पहले की करुणा से उबर पाना ही कठिन है|हम दुखी हैं,आक्रोशित हैं और अपनी-अपनी तरह से प्रतिरोध भी व्यक्त कर रहे हैं लेकिन लगता है कि यह कुछ पंक्तियों में व्यक्त हमारी बेचैनी बेहद अपर्याप्त है और घटित की पुनरावृत्ति रोकने में एकदम अक्षम है|आए दिन स्त्रियों पर होती बर्बर घटनाएं हमारी समूची समाज व्यवस्था पर काला धब्बा तो हैं ही,आधी आबादी की असुरक्षा का ऐसा प्रमाण भी हैं जो एक राष्ट्र और उसके राज्यों में माकूल व्यवस्था के संदिग्ध होने का भी संकेत है|इन अमानवीय घटनाओं के नजरिये से देखें तो यह आधी आबादी एक ‘अल्पसंख्यक’ की तरह असुरक्षित व भयाक्रांत होती जा रही है|

          जिन सरकारों के शासन में ये घटनाएं हो रही हैं पता नहीं क्यों उनके नुमाइंदे इसे सिर्फ अपनी अक्षमता पर ‘पौरुषहीनता’ जैसा अनुभव करते हुए अपने लज्जास्पद बयानों से समूचे स्त्री समाज के विरुद्ध खड़े होना एकमात्र तात्कालिक कर्म मानते हैं|बर्बरता के विरुद्ध तुरंत कठोर निर्णय व पीड़ित के प्रति गहरी संवेदनशीलता से चिकित्सा,सुरक्षा व अन्य ज़रूरी संसाधनों की उपलब्धता जैसी आवश्यक कार्यावाही की तरफ ध्यान केन्द्रित करने के बजाए अन्य अनावश्यक प्रसंग उस समय कैसे महत्तवपूर्ण हो जाते हैं|  पुलिस,चिकित्सा की अनुपलब्धता या पीड़ित के प्रति लापरवाह व उपेक्षापूर्ण व्यवहार को तुरंत संज्ञान में लेने से पता नहीं क्यों सरकारों की कमीज की दिखावटी सफेदी खतरे में पड़ने लगती है|अपने अधीन तंत्र की अकुशलता व अक्षमता पर कठोर होना और उन्हें बार-बार सामान्यजन के प्रति न्यायपूर्ण-सेवामय-संवेदनशील तरीके से व्यवहार के लिए निर्देशित व नियंत्रित करना क्या सरकार के प्रमुख कर्तव्यों में शामिल नहीं है?छोटी-छोटी बच्चियों पर होती बर्बरता के बाद जिम्मेदारी के लिए प्रश्नांकित किए जाते नेताओं-अधिकारियों के बयान नितांत जनविरोधी,स्त्री संवेदना से विहीन व गैरजिम्मेवारी के पुष्ट सबूत हैं|

         ये घटनाएं हमारे ऊपर भी अभियोग हैं|हम सरकार नामक व्यवस्था पर सारा दारोमदार छोड़कर अपने निजी कर्तव्यों से विमुख होते चले जाते हैं|यह सही है कि ज़्यादा कारगर व सक्रिय कार्यावाही व नियंत्रण सरकारों के हाथ में होता है|अच्छे  कड़े क़ानूनों का उचित क्रियान्वयन और जनता में जागरुकता, एक नैतिक नागरिक होने का सक्रिय बोध व बेहतर जीवन के लिए अपने निजी प्रयासों की अनिवार्यता का स्वतः स्फूर्त स्वीकार मिलकर ही एक व्यवस्था को पूर्णता प्रदान करते हैं| लेकिन इससे अलग भी एक बड़ी गुंजाइश है जो शासन-तंत्र की  विफलता में भी हमारे लिए सुरक्षित व बेहतर मानवीय जीवन बना सकती है| जिस पर हमें विचार करना चाहिए|निर्भया के अभियुक्तों की बर्बरता के बहुत स्पष्ट व प्रबल साक्ष्य होने के बावजूद क्यों कुछ वकील अभियुक्तों को बचाने के लिए नित नए हथकंडे अपनाते हैं|पेशेगत निष्ठा क्या बर्बरता से नजरें हटाने देती है?अव्वल तो ऐसा हो कि वकील इतने स्पष्ट व जघन्य मामलों की पैरवी ही न करें और यदि करें भी तो महज औपचारिकता पूरी करने के लिए|एक अभियुक्त ने जेल में आत्महत्या कर ली थी|वकील ने मृत अभियुक्त का वीरोचित वर्णन किया व मीडिया ने पूरे उदार भाव से दिखाया,क्या यह ज़रूरी है|इतनी बर्बरता के स्पष्ट अभियुक्त के लिए यह कहा जाना कि वह निडर व साहसी था,आत्महत्या नहीं कर सकता,दरअसल निडरता व साहस जैसे भावों का अवमूल्यन करने के साथ ही भाषा के प्रयोग का अतिचार है|अधिकांश खबरिया चैनल स्त्री शोषण की घटनाओं की खबर सबसे तेजी के दावे के साथ जिस तरह पेश करते हैं उसमें संवेदना,प्रश्न,चिन्ता का भाव नजर ही नहीं आता|व्यक्ति प्रशंसा के इस प्रायोजित मीडिया समय में ऐसे पीड़ित नेपथ्य में चले जाते हैं|क्या इससे बचा नहीं जा सकता?

           वकीलों व मीडिया के बाद बारी आती है स्वयं स्त्री समाज की|स्त्रियां अपने पुत्रों-पतियों-पिताओं-भाइयों-मित्रों-सहकर्मियों आदि पुरुष रिश्तों से ऐसी घटनाओं के सक्रिय विरोध के लिए दो टूक ढंग से नहीं कह पाती|उन्हें स्वयं तो इन घटनाओं का जितना भी सम्भव हो विरोध करना ही चाहिए अपने से सम्बद्ध पुरुषों को ऐसा ही करने के लिए प्रेरित व मजबूर करना चाहिए|क़ानून को हाथ में लेना गलत है,क़ानून के हाथ मजबूत करने के लिए की गयी कोई भी कोशिश पीड़ित के लिए मददगार ही साबित होगी|अपने आसपास घटित क्रूरताओं के विरुद्ध एक जागरुक व संवेदनशील मनुष्य की तरह व्यवहार करना ही हमारी नैतिकता का  प्रमाण है|किसी भी स्त्री के असम्मानित होने को सहन कर लेने का मतलब उस स्त्री समाज के अनादर को स्वीकार कर लेना है जिसमें अनायास ही हमारी मां,बहन,बेटियां व तमाम परिचित सम्माननीय स्त्रियां शामिल हैं|यदि पौरुष जैसा कुछ भाव सच में है तो वह स्त्रियों के सम्मान की पैरवी व अनादर के विरोध से ही जानना चाहिए|

           इस सबके साथ ही किसी भी तरह के स्त्री विरोधी विचारों का तथा घटनाओं के पश्चात आते बेतुके बयानों का न केवल सार्वजनिक तिरस्कार करना चाहिए बल्कि ऐसा करने वालों की पहचान उनके अन्य मुखौटों से अलग स्त्री-विरोधी व्यक्ति के रूप में की जानी चाहिए| देश की एक बड़ी समस्या के बतौर स्त्री शोषण को यदि हम नहीं लेंगे तो उससे निपटने के तमाम प्रयास अधूरे ही साबित होंगे|

Monday 26 May 2014





राजनीति के केजरीवालों का समय नहीं यह ?


                            मिथलेश शरण चौबे


            भारत वह स्वतंत्र राष्ट्र है जो अपनी स्वतंत्रता के सबसे बड़े योद्धा और अहिंसा के पुजारी को एक बरस भी स्वतंत्र राष्ट्र में सुरक्षित नहीं रख सका |आज वही देश गांधी के सबसे अचूक अस्त्रों के सहारे जनसाधारण की हैसियत को प्रतिष्ठित करने में लोगों को संशयग्रस्त बना रहा है |देश की दोनों बड़ी राजनैतिक पार्टियों की गतिविधियों की अनेक समानताओं में से एक यह भी है कि वे जी जान से यह कोशिश करती हैं की राजनीति उनके खेत की मूली ही बनी रहे उसे परिवर्तन की वह गंध न लगे कि फिर उनका अस्तित्व ही दाव पर लग जाए |
            आम आदमी पार्टी ने उनचास दिन की अपनी दिल्ली सरकार में बिजली के आडिट,पानी की उपलब्धता,दैनिक वेतन भोगियों के नियमितीकरण की पहल,ऑटो चालकों के लाइसेंस,हफ़्ता वसूली व पुलिसिया आतंक पर नियंत्रण तथा मुकेश अम्बानी पर एफ आई आर करके जो सक्रिय व जनहितैषी सरकार होने का साक्ष्य प्रस्तुत किया था उसे पल भर में विस्मृत नहीं किया जा सकता| जनता से किये सबसे बड़े वादे स्वराजके लिए नैतिकता के नाते शासन छोड़ देने जैसी नजीर भी इन दिनों अकल्पनीय है| मध्य प्रदेश,राजस्थान के मुख्यमंत्री से लेकर राहुल गांधी  तक को उस शैली के किंचित अनुकरण की ओर मुड़ना पड़ा जिसे लंबे समय से राजनीति ने पूरी तरह भुला दिया था |देश भर के राजनेताओं में साधारण का मुहावरा असर करने लगा है और सत्ताएं यह समझ चुकी हैं कि इस अस्त्र के प्रदर्शन बिना अब गुजारा संभव नहीं|अपने पिछले एक वर्षीय राजनैतिक समय में लोगों को जागरूक और प्रश्नाकुल होने का जो सक्षम अहसास दिलाने की कोशिश की , राजनैतिक पार्टियों को निजी उन्नति के अलावा जनहितैषी मार्गों को भले ही दिखाने के लिए अपनाना पड़ा,क्या इसे अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी की सफलता की तरह दर्ज नहीं किया जाना चाहिए ? राजनीति में उन्होंने जो कर दिया वह सचमुच अत्यंत उल्लेखनीय है| तमाम पार्टियों की सत्ताओं से उपकृत लोगों की एक बड़ी लंबी सूची है ,ये लोग ऐसे अवसरों पर बयानों-वक्तव्यों-आलेखों के माध्यम से अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन करते हैं और इन पार्टियों को खतरा लगते लोगों को संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ घोषित कर अराजकतावादी साबित करने में लग जाते हैं | आगे उपकृत होने की कतार में इन दिनों बहुत लोग नजर आ रहे हैं|
           रोज-रोज जैसी व्याख्याएं की जा रही हैं उनसे अलग उस सच को पनपते हुए देखा जा सकता है जो पारंपरिक राजनीति को बदलने के लिए किसी भी कीमत पर डटा हुआ है| मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने अस्तित्व को दाव पर लगाकर तथा लगातार गलत साबित किये जाने के जोखिम के बावजूद अपनी प्रतिबद्धताओं के लिए लड़ने का पराक्रम केजरीवाल के अलावा देश में और कौन कर रहा है? सादगीपूर्वक शासन चलाते कुछ अन्य नेताओं का उल्लेख भी उनकी पार्टियों ने सिर्फ दिखावटी रूप से ही किया है | नितिन गडकरी पर भ्रष्ट होने के  आरोप की प्रतिक्रिया में मानहानि के मुद्दे पर जमानत लेना या नहीं लेना अरविन्द केजरीवाल का अपना निजी फैसला है और जिसका  आम आदमी पार्टी के लिए हित-अहित हो सकता है,लेकिन उसके बजाए बेमानी व्याख्याओं और नित नए आरोपों से केजरीवाल को अलंकृत करने वालों को जेल के जीवन के बारे में भी थोड़ा-सा विचार कर लेना चाहिए|यह भी जान लेना ठीक रहेगा कि जमानत नहीं लेने के मामले में गांधी की अडिगता ऐतिहासिक है| इस सबका यह मतलब नहीं कि आम आदमी पार्टी और केजरीवाल के निर्णय और नीतियां आलोच्य  नहीं हो सकते या कि उनके तौर-तरीकों से असहमति जताने का एकमात्र मतलब किसी राजनैतिक पार्टी से संबद्ध होना ही है लेकिन उनकी बेमानी व अतिवादी व्याख्याओं में देश में घटित संभावना भरी एक बड़ी शुरुआत मात्र  उपहास का विषय बनती  नजर आने लगी है|कांग्रेस-भाजपा को तो ऐसा करना उनके नैतिक कर्त्तव्य की तरह है पर समझ से परे वे बहुतेरे लोग हैं जो एक सच्चे पाठ की जगह कुपाठ के आनंद में संलग्न हो रहे हैं|बेवसाईट,मेल,मोबाइल आदि के सुविधाजनक समय में जब हम किसी को भी सही-गलत के अपने विचार से अवगत करा सकते हैं, ऐसे में किसी नेक संभावना को लक्षित करने वालों के तेजी से नैराश्य की और फिसलते विचारों से किसी षड़यंत्र की बू ही तो आएगी |नयी सत्ता की ओर ललक भरी दृष्टि भी सही-गलत के फर्क का विवेक खो देती है|
          दरअसल वर्षों से राजनेताओं के मालिकपन को बर्दाश्त कर रहे लोगों के बीच साधारण की महिमा अनुकूल नहीं बैठती|हम चाहते हैं कि मुख्यमंत्री-सांसद-विधायक हमारे ऊपर राज करें व हम उनके हर सही-गलत की प्रशंसा करते जाए|वे इतने विशिष्ट बने रहें कि हमें अपने ऊपर के शासन का पता लगता रहे|हम शोषण को भुगतती रिआया रहें और वे हमारी तरफ से बेफिक्र राजा|उनके खिलाफ बोलने का हम सपना ही न देखें|अतीत में भी इस सपने को देखने की कोशिशें हुईं,आज लाखों लोग ऐसा सपना भी देख रहे हैं और उसे सच में बदलता हुआ भी| केजरीवाल उस स्वप्न का इस समय सबसे बड़ा सच हैं|
                                                                    

Sunday 23 February 2014




वह इमारत

मिथलेश शरण चौबे


       मुफीद इंतजाम करना था मुल्क की खुशहाली के लिए, वहां बैठकर| ज्यादा ठीक के लिए अनिवार्य विचार, सुदूर गांवों-नगरों की आवाम की जरूरतों को पहचानकर, उन्हें मनुष्य-भर जी पाने की अदद उम्मीद के जरूरी इंतजामों पर बहस करना थी| सुरक्षित और सुकून से रहे आवाम, एक मुकम्मल मुल्क होने से मिलीं सारी आजादियां दिलाकर उन्हें आजाद जीवन देने का अपरिहार्य कर्म करना था| करोड़ों रुपये प्रति मिनिट खर्च होते हैं उनके वहां होने पर, बत्तीस रुपये में पेट नहीं भरता; कर्ज और आपदाओं में लगातार मौत को चुन रहे हैं किसान, विकास के खोखले भूत से रोजमर्रा के संकट नहीं भागते| एक इमारत के संडास पर लाखों रुपये खर्च करने वाले समय में आज भी सिर पर मैला ढोते हैं मनुष्य, पैसठ बरस पहले स्वाधीन हो चुके देश में|
       यहां बैठे हुए लोग आम आदमी से शालीनता की अपील करते हैं,मर्यादा का पाठ पढ़ाते हैं, हदों में रहने की सीख देते हैं,कुछ तो विरोध को कुचलना भी गलत नहीं मानते|उनमें से बहुतों पर बड़े-बड़े दाग हैं, जिन पर नहीं हैं उन पर चिपकी हैं अनंत चुप्पियां| ईमानदारी नैतिकता वहां से निर्वासित हो चुकी है| कुछ सही लोग भी होंगे पर निष्क्रिय| कभी भी पदासीन होने का गुमान वहां तैरता है,अब भी प्रतीक्षा में रहने की बैचेनी मंडराती है|
गली-मुहल्लों के लड़ाई-झगड़ों से ज्यादा गर्हित होती है लड़ाई यहां|महत्वपूर्ण चर्चाओं के समय सोते हैं, अपने वोट बैंक के मुद्दों पर कभी स्प्रे-माइक-कपड़े तो कभी अशालीन शब्दों को लहराते हैं, अच्छे आचरण की सार्वजनिक शपथ लेने वाले| हट्ट-हट्ट बोलकर, आम मनुष्य की अभिव्यक्ति का मजाक बना रहा था एक मसखरा यहां| चीखकर-चिल्लाकर गरीबी,आत्महत्या,मंहगाई, भ्रष्टाचार को मुखर ही नहीं होने देते यहां पर हिंदी बोल सकने के बावजूद अंग्रेजी में अटपटा सा बोलते लोग|
       टेलीविजन में उनके तमाशे देखकर लोग अब चौकते नहीं हैं, कोई आश्चर्य नहीं करते दोनों तरफ की सधी-सधाई पटकथा पर| लोग अपनी निरुपायता पर भले ही क्षुब्ध हों अपनी जुबां को ख़राब करना नहीं चाहते| पढ़े-लिखे समझदार कहे जाने वाले बहुसंख्यक लोगों को इसमें कोई रूचि नहीं है| इस सबसे छेड़खानी करना उन्हें सिरफिरे लोगों की महत्वाकांक्षा लगती है और उन्हें दुःख है कि कविता में नृत्य में नाटक में अब जनता की रुचि नहीं रही| चौबीसों घंटे रोजमर्रा के संघर्षों में पिसती रिआया का कोई सौंदर्यबोध ही नहीं है| अलबत्ता इतना जरूर कहते हैं बुद्धिजीवी कि कलाएं अब हाशिये पर हैं| पता नहीं क्यों उस इमारत में बैठे नुमाइंदों की तरफ धीरे-धीरे
सरक रहे हैं वे भी|
        तार-तार हो रही मनुष्यता, सामंतों के क़दमों में पल रही राजनीति| साधारण लोगों को वहां पहुंचने की
चुनौती देते हैं : अपने ही घर में अपनी पत्नी की जमानत जब्त करा चुके एक मंत्री,अपने राज्य को पटरी से उतारकर पिछले दरवाजे से इमारत में जगह बनाते एक पूर्व मुख्यमंत्री, जाति व धार्मिक समीकरणों से जनता को भरमाकर सत्ता को हथियाते नेता, जनता की परेशानियों से दूर एक परिवार की सेवा में लगे चाटुकार,एक असहिष्णु को मुखिया बनाने की कवायद में उसके हिंसा भरे अतीत को धोने-पोछने में लगे खीजते-चीखते प्रवक्तागण| लोहिया-जेपी के पीछे चलते-चलते नेता हुए लोग पूंजीवाद के बड़े और भद्दे दाग बन चुके हैं और उन्हीं का नाम लेकर अनर्गल भाषा में क्रूरता से झल्लाते हैं निरीह लोगों पर| गांधी यदि होते तो क्या उनको बख्शते, उन्हीं का नाम लेकर चलने वाले लोग| जिनका जो काम होना चाहिए उसके सिवा उन्हें और भी काम हैं और जिन्हें उन पर प्रश्नचिह्न लगाना चाहिए वे अपनी बारी की व्यग्रता में डूबे हैं| हालांकि अपने वेतन भत्ते सुविधाओं पर मिनिटभर में  आमराय बनाते रहे हैं अब तक बड़ी राष्ट्रीय समस्याओं पर मतैक्य न बन पाए लोग| इसी क्रम को जारी रखने के मंसूबे तैरने लगे हैं फिर|
        भूख से गरीबी से शोषण से प्राकृतिक आपदाओं से भ्रष्टाचार से मंहगाई से लड़ते जूझते आम मनुष्य को
बहुत दूर से दिखाई देती उस भव्य इमारत के अन्दर के दृश्य निराश करते हैं| उनकी दमघौटू बेचैनी निरुपाय है|गलेंगे खपेंगे मरेंगे एक दिन वे सभी, खुले आसमान में जी भर के सांस ले पाने का उनका स्वप्न अब भी जीवित है| इतिहास में दर्ज हैं कई खंडहर हो चुकी भव्यताएं, बदलाव के लिए हुई क्रांतियों के दृश्य अब भी तैरते हैं| जिन्दगी सपना दिखाती है,वह सच में भी बदल सकता है ।
                                                                                                                                        



Saturday 18 January 2014


आलोचना का विवेक


       मिथलेश शरण चौबे



         इतिहास यह नहीं सिखाता कि उसके खाते में जो असफलताएं दर्ज हैं हम वर्तमान के घटित पर उसे आरोपित करें |इतिहास को जानने का एक उद्देश्य यह है कि उसमें हुए श्रेष्ठ को हम वर्तमान की कसौटियों पर आत्मसात करने की प्रभावी कोशिश करें और साथ ही उसमें भरे पड़े अराजकताओं-अन्यायों-असफलताओं-मूर्खताओं के अनेक भयावह व विद्रूप किस्सों से सबक लेते हुए अपने वर्तमान को उससे बचा ले जाएं |लेकिन ऐसा अक्सर नहीं होता है |अपने पूर्वाग्रहों और जड़ विचारों की व्याख्या के लिए इतिहास से हम मुफीद प्रसंगों को चुनकर कुछ तर्क हासिल कर लेते हैं,वे तर्क वर्तमान में मौजूद संभावना को झुठलाने की बेहया कोशिश करने लगते हैं |
         भारतीय लोकतंत्र कुछ असफल प्रयोगों के बीच लगभग इकहरेपन से चलती हुई एक दर्शनीय अव्यवस्था की तरह हैं जिसमें अब तक सामान्य मनुष्य का कोई महत्व नहीं रहा है | पारम्परिक तरीकों से व्यवस्था पर काबिज होना और उसे अपनी मर्जी से चलाते रहने का हुनर जो जानते हैं उनके अभ्यस्त भी हम इतने ज्यादा हो गए हैं कि कुछ बेहतर भी संभव हो सकता हैजैसी बात हमें बिलकुल भी नहीं सुहाती | अलग और बेहतर के लिए हो रहीं सक्रिय चेष्टाओं को संदिग्ध मानना हमारा नैतिक कर्त्तव्य सा बन गया है| वर्षों से जिस दुरावस्था को हम भुगत रहे हैं उसने हमें इतना पंगु और यथास्थितिवादी बना दिया है कि खुद तो उससे उबरने का विचार हम नहीं ही करते हैं,सक्रिय रूप से ऐसा करने की मंशा साकार करते लोगों को संदेहास्पद मान लेने की तत्परता से भी नहीं चूकते |अपने स्वार्थों को साधने में लगे जनविमुख बड़े राजनैतिक दल सिर्फ शासन ही नहीं चलाते वे अदृश्य रूप से हमारे विवेक में दीमक लगाने का काम भी करते हैं,फिर हम उनके द्वारा प्रस्तुत चेहरों और नीतियों के आगे के संसार की कल्पना भी नहीं कर सकते |
         स्वाभाविक आलोचकों के लिए हर क्षण की गतिविधियां और उनकी अनर्गल व्याख्या ही पर्याप्त रहती है| जनता पार्टी और संयुक्त मोर्चे के असफल प्रयोगों ने इतिहास के सहारे आलोचना करने वालों को बड़े ठोस तर्क उपलब्ध करा दिए हैं |कुछ हर समय निंदा के लिए ललकते लोगों को देश दुनिया के अन्यान्य विषयों से जैसे इन दिनों विरक्ति सी हो गयी है और एकाग्रभाव से वे राजनीति की नव संभवता को नेस्तनाबूत करने के अपने अपरिहार्य कर्म में संलग्न हैं|किसी को संदिग्ध मानना और अपनी तरह उसके दोषों की व्याख्या करना एकदम सहज सी बात है और इसके लिए सभी स्वतंत्र भी हैं लेकिन आलोचना का इकहरापन आलोचकों को ही कठघरे में खड़ा करता है |वर्षों से जन विरोधी व राजनीति को पतित करने में लगे नेताओं की लंबी सूची ऐसी है जो अक्सर तीखी आलोचना से बच निकलती है |चारा घोटाले में संसद सदस्यता से बर्खास्त किये गए नेता हो या फिर धर्म के ध्रुवीकरण से देश की बागडोर संभालने का सपना पालते नेताजी,आलोचकों की उदारता से अपने मंसूबों में निर्विघ्न लगे रहते हैं |व्यासायिक परीक्षा मंडल मध्य प्रदेश में पार्टी और सरकार की सिफारिश पर हुई हजारों फर्जी नियुक्तियां जहां निंदनीय नहीं रह जाती  वहीँ एक बड़े दल के अनेक बड़े नेताओं की हास्यास्पद सार्वजनिक चाटुकारिता भी अलक्षित रह जाती है |मुखर आलोचना कभी गुजरात के अतीत से किनारा करती नजर आती है तो कभी सब्सिडी के असली राष्ट्रीय चरित्र से|कभी वह पारिवारिक हैसियत को योग्यता मान लिए जाने पर आँख नहीं दिखाती तो कभी राज्यों के प्रतिपक्षों की अवसरवादी राष्ट्रीय जुगलबंदी पर खामोश रह जाती है |  राजनीति ऐसे अनंत उदाहरणों की खान है |

              राजनीति के बाहर सार्वजनिक जीवन के बहुविध क्षेत्रों में अन्याय,अराजकता,शोषण,अमानवीयता,फूहड़ता,वैमनस्य आदि के अनेक ऐसे वृत्तान्त रोज रोज घटित दिखाई देते हैं जिनको जीभर कोसे बिना रहा नहीं जाता|शायद वे मुखर आलोचकों के लिए ज्यादा मायने नहीं रखते | वर्षों से चली आ रही साधारण मनुष्य से दूरी रखने वाली व्यवस्था के विकल्प के बतौर यदि कोई अधबनी ही सही,सकारात्मक बदलाव की कोशिश घटित होती दिख रही है तो उसे सांस लेने का मौका तो देना ही चाहिए |उनके गलत की भी आलोचना जरूरी है पर इसमें मशगूल रहकर अन्यों को नजरअंदाज करना अपने पूर्वाग्रहों से समय का मुआयना करना ही है| हमारे पास यह अवसर है कि हम चंद लोगों को परिवर्तन के प्रतीक की माला न पहनाकर स्वयं अपने स्तर पर बेहतर के लिए प्रयास करें और अपने समय की जघन्यताओं-क्रूरताओं की कठोर निंदा भी करें|आलोचना तभी असंदिग्ध रह पाती है जब वह सारे कौनों की निर्विकार जांच-पड़ताल करे|एक की निंदा का उतावलापन यदि किन्हीं अन्यों के प्रति उदारता का सबब बन जाए तो इसे आलोचना का विवेक तो नहीं कहेंगे !