चुनाव आयोग को भले ही
बेहतर चुनाव की शाबाशियां मिलती रहती हैं लेकिन उसकी नाक के नीचे से लगातार कुप्रबंधन और नियंत्रणहीनता के जो उदाहरण मिलते
हैं वे उसकी साख पर पर्याप्त खरोंच बनाते जा रहे हैं|फर्जी मतदान की देश व्यापी
शिकायतों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता| ऐसी कुछ बड़ी घटनाओं के लिए तो साक्ष्य का
बहाना लेकर खारिज करने की कोशिश होती ही है पर इव्हीएम मशीन के युग में भी अनेक
बाहुबलियों द्वारा व्यापक स्तर पर की जाती फर्जी वोटिंग की कठोर सच्चाई से मुंह
फेरना लोकतंत्र के लिए कैसे ठीक हो सकता है|इसके साक्ष्य उन हजारों-लाखों मतदान
वंचित लोगों के चेहरों पर मिल जाते हैं जिनके वोट दिए जा चुके होते हैं और वे अपने
नागरिक होने का अंगुली चिह्न भी बतौर निशानी हासिल नहीं कर पाते|
राजनैतिक पार्टियों
द्वारा चुनाव के समय किए जाने वाले वायदे इसी श्रंखला की एक और कड़ी हैं जिन पर
किसी तरह का नियंत्रण प्रतीत नहीं होता|वायदे तो सभी पार्टियां करती हैं पर सत्ता
मिलने पर वायदे के मुताबिक़ काम करने का संयोग कम ही मिलता है|देश की दोनों बड़ी
राजनैतिक पार्टियों कांग्रेस-भाजपा ने चुनाव पूर्व के वायदों को तोड़ने में कुछ
ज़्यादा ही महारत पेश की है|लोकप्रियता दिलाने वाली कुछ बेमतलब की योजनाओं से अपनी
छवि चमकाते भाजपा शासित राज्यों में राशन के सार्वजनिक वितरण में कुप्रबंधन और
व्यापक धांधली चुनावी घोषणाओं को तिलांजलि देने का एक ज्वलंत उदाहरण है और इस दौड़
में भी भाजपा अव्वल नजर आती है| ताजा नमूना काला धन मुद्दे पर भाजपा ने समूचे देश
के सामने हैरतअंगेज तरीके का प्रस्तुत किया है|कांग्रेस की यूपीए सरकार ने तो काला
धन के मसले को सक्रियता से उचित निराकरण की ओर ले जाने में अनिवार्य पहल में ही
आनाकानी की|उससे कई कदम आगे दौड़ते हुए भाजपा ने अपने नेताओं,अपने पक्ष में अनर्गल
तर्कों से व्यापक माहौल बनाने में जुटे रामदेव की तरह के मौसमी वक्ताओं और
दक्षिणपंथ के घोषित पैरवीकार पत्रकारों से काला धन को एक चुनावी मुद्दा बनाने के
लिए जो लाभ के फूले गुब्बारे अपने बयानों से बांटे उनने वोट का तात्कालिक फायदा
भाजपा को प्रत्याशित रूप से दिया|इन सबने जनता को लाखों रूपये मिलने के सपनों को
बांटकर उसे मुंगेरीलाल बनने पर मजबूर कर दिया और आश्चर्य की बात यह कि ऐसा करते
हुए इन सबने काला धन प्राप्ति की संभावना के तमाम जटिल पहलुओं का न तो गंभीरता से
विश्लेषण किया और न ही विपक्ष में रहते हुए तत्कालीन सत्ता पक्ष के इस विषय पर संशयग्रस्त रहने के सच को जाना |अनेक
देशों की काला धन वापसी पर हुयी समृद्ध आर्थिकी की ख़बरों को अपने लिए भी सच और हूबहू अनुकरणीय
मानने के अविचारित उतावलेपन ने चुनाव के गणित को साधने का एक उम्दा अस्त्र प्रदान
किया|
यही वजह है की तबके और
अबके वित्तमंत्रियों में सिर्फ़ मुखौटों का अंतर है उनके बयानों,कालाधन वापसी की
जटिलता के तर्कों और क्रियाशीलता में कोई फ़र्क नजर नहीं आता| पन्द्रह लाख रूपये
प्रति नागरिक का हिसाब बताने वाले बाबा-वकील-पत्रकार सब अदृश्य हैं|विदेश
यात्राओं,चुनावी राज्यों में नए-नए वायदों और चंद उद्योगपतियों के बड़े हितों में
लीन प्रधानमन्त्री जनता के साथ किए गए इस वायदे को कब तक वायदा बने रहने को
अभिशप्त करेंगे|व्यक्तिगत जीवन में विश्वासघात व वादाखिलाफी से प्रभावित रिश्तों
से दूर होने में तनिक भी देर नहीं करते लोग क्या इस सार्वजनिक विश्वासघात व वादाखिलाफी
को चुप रहकर बर्दाश्त कर जायेंगे?क्या चुनाव आयोग को इस तरह के चुनाव पूर्व वायदों
को सत्ता प्राप्ति के बाद पूरा न हो पाने की स्थिति में राजनैतिक दलों पर किसी तरह की पाबंदी का अंकुश
नहीं लगाना चाहिए?