Saturday 18 January 2014


आलोचना का विवेक


       मिथलेश शरण चौबे



         इतिहास यह नहीं सिखाता कि उसके खाते में जो असफलताएं दर्ज हैं हम वर्तमान के घटित पर उसे आरोपित करें |इतिहास को जानने का एक उद्देश्य यह है कि उसमें हुए श्रेष्ठ को हम वर्तमान की कसौटियों पर आत्मसात करने की प्रभावी कोशिश करें और साथ ही उसमें भरे पड़े अराजकताओं-अन्यायों-असफलताओं-मूर्खताओं के अनेक भयावह व विद्रूप किस्सों से सबक लेते हुए अपने वर्तमान को उससे बचा ले जाएं |लेकिन ऐसा अक्सर नहीं होता है |अपने पूर्वाग्रहों और जड़ विचारों की व्याख्या के लिए इतिहास से हम मुफीद प्रसंगों को चुनकर कुछ तर्क हासिल कर लेते हैं,वे तर्क वर्तमान में मौजूद संभावना को झुठलाने की बेहया कोशिश करने लगते हैं |
         भारतीय लोकतंत्र कुछ असफल प्रयोगों के बीच लगभग इकहरेपन से चलती हुई एक दर्शनीय अव्यवस्था की तरह हैं जिसमें अब तक सामान्य मनुष्य का कोई महत्व नहीं रहा है | पारम्परिक तरीकों से व्यवस्था पर काबिज होना और उसे अपनी मर्जी से चलाते रहने का हुनर जो जानते हैं उनके अभ्यस्त भी हम इतने ज्यादा हो गए हैं कि कुछ बेहतर भी संभव हो सकता हैजैसी बात हमें बिलकुल भी नहीं सुहाती | अलग और बेहतर के लिए हो रहीं सक्रिय चेष्टाओं को संदिग्ध मानना हमारा नैतिक कर्त्तव्य सा बन गया है| वर्षों से जिस दुरावस्था को हम भुगत रहे हैं उसने हमें इतना पंगु और यथास्थितिवादी बना दिया है कि खुद तो उससे उबरने का विचार हम नहीं ही करते हैं,सक्रिय रूप से ऐसा करने की मंशा साकार करते लोगों को संदेहास्पद मान लेने की तत्परता से भी नहीं चूकते |अपने स्वार्थों को साधने में लगे जनविमुख बड़े राजनैतिक दल सिर्फ शासन ही नहीं चलाते वे अदृश्य रूप से हमारे विवेक में दीमक लगाने का काम भी करते हैं,फिर हम उनके द्वारा प्रस्तुत चेहरों और नीतियों के आगे के संसार की कल्पना भी नहीं कर सकते |
         स्वाभाविक आलोचकों के लिए हर क्षण की गतिविधियां और उनकी अनर्गल व्याख्या ही पर्याप्त रहती है| जनता पार्टी और संयुक्त मोर्चे के असफल प्रयोगों ने इतिहास के सहारे आलोचना करने वालों को बड़े ठोस तर्क उपलब्ध करा दिए हैं |कुछ हर समय निंदा के लिए ललकते लोगों को देश दुनिया के अन्यान्य विषयों से जैसे इन दिनों विरक्ति सी हो गयी है और एकाग्रभाव से वे राजनीति की नव संभवता को नेस्तनाबूत करने के अपने अपरिहार्य कर्म में संलग्न हैं|किसी को संदिग्ध मानना और अपनी तरह उसके दोषों की व्याख्या करना एकदम सहज सी बात है और इसके लिए सभी स्वतंत्र भी हैं लेकिन आलोचना का इकहरापन आलोचकों को ही कठघरे में खड़ा करता है |वर्षों से जन विरोधी व राजनीति को पतित करने में लगे नेताओं की लंबी सूची ऐसी है जो अक्सर तीखी आलोचना से बच निकलती है |चारा घोटाले में संसद सदस्यता से बर्खास्त किये गए नेता हो या फिर धर्म के ध्रुवीकरण से देश की बागडोर संभालने का सपना पालते नेताजी,आलोचकों की उदारता से अपने मंसूबों में निर्विघ्न लगे रहते हैं |व्यासायिक परीक्षा मंडल मध्य प्रदेश में पार्टी और सरकार की सिफारिश पर हुई हजारों फर्जी नियुक्तियां जहां निंदनीय नहीं रह जाती  वहीँ एक बड़े दल के अनेक बड़े नेताओं की हास्यास्पद सार्वजनिक चाटुकारिता भी अलक्षित रह जाती है |मुखर आलोचना कभी गुजरात के अतीत से किनारा करती नजर आती है तो कभी सब्सिडी के असली राष्ट्रीय चरित्र से|कभी वह पारिवारिक हैसियत को योग्यता मान लिए जाने पर आँख नहीं दिखाती तो कभी राज्यों के प्रतिपक्षों की अवसरवादी राष्ट्रीय जुगलबंदी पर खामोश रह जाती है |  राजनीति ऐसे अनंत उदाहरणों की खान है |

              राजनीति के बाहर सार्वजनिक जीवन के बहुविध क्षेत्रों में अन्याय,अराजकता,शोषण,अमानवीयता,फूहड़ता,वैमनस्य आदि के अनेक ऐसे वृत्तान्त रोज रोज घटित दिखाई देते हैं जिनको जीभर कोसे बिना रहा नहीं जाता|शायद वे मुखर आलोचकों के लिए ज्यादा मायने नहीं रखते | वर्षों से चली आ रही साधारण मनुष्य से दूरी रखने वाली व्यवस्था के विकल्प के बतौर यदि कोई अधबनी ही सही,सकारात्मक बदलाव की कोशिश घटित होती दिख रही है तो उसे सांस लेने का मौका तो देना ही चाहिए |उनके गलत की भी आलोचना जरूरी है पर इसमें मशगूल रहकर अन्यों को नजरअंदाज करना अपने पूर्वाग्रहों से समय का मुआयना करना ही है| हमारे पास यह अवसर है कि हम चंद लोगों को परिवर्तन के प्रतीक की माला न पहनाकर स्वयं अपने स्तर पर बेहतर के लिए प्रयास करें और अपने समय की जघन्यताओं-क्रूरताओं की कठोर निंदा भी करें|आलोचना तभी असंदिग्ध रह पाती है जब वह सारे कौनों की निर्विकार जांच-पड़ताल करे|एक की निंदा का उतावलापन यदि किन्हीं अन्यों के प्रति उदारता का सबब बन जाए तो इसे आलोचना का विवेक तो नहीं कहेंगे !