Saturday 1 August 2015

जनगणना में जाति



         
       
 मिथलेश शरण चौबे

       जाति बहुत बाद में बनी|आदिम मनुष्य सबसे पहले अपने स्थान के कारण अन्य जगहों के मनुष्यों से अलग रहा होगा। जैसे-जैसे आबादी और समझ का विस्तार हुआ मनुष्य को अलग-अलग वर्गीकृत करने के कारण बनते चले गये। बुद्धि और कुछ भले न करवाये वह अहंकार और अलग शक्ति का मार्ग जरूर प्रशस्त करती है,वर्चस्व की मानसिकता ने ज्यों ही अपने पैर पसारना शुरू किया होगा,मनुष्यों के बीच विभाजन की क्रूरता ने जन्म लिया होगा, ऐसे ही मार्गों से कभी जाति नामक व्यवस्था जन्मी होगी यदि हम समाजशास्त्र की तकनीकी में न उलझें तो।हालाँकि यह वर्गीकरण तथाकथित व्यवस्था बनाने के सचेत उपक्रम के अंतर्गत ही शुरू हुआ होगा जिसका आरम्भ वर्ण विभाजन जैसे मनुष्यता विरोधी क्रम में दिखता है|आगे चलकर 'विकास' जैसे लुभावने और समय की अनिवार्यता पर खरे उतारे जाते प्रत्यय ने इसे बिल्कुल अपरिहार्य बना दिया। हो तो यह भी सकता था कि सभी मनुष्य सभी तरह के काम करें और सांझेदारी में जीवन जिएँ लेकिन सबके अलग-अलग कार्य वितरण में दिखती सुविधा ने ही इस जाति व्यवस्था को पोषित किया। 

        गाँवों में कुम्हार, मोची, बढ़ई, पंडित, बनिया, जुलाहा, किसान, लुहार मिलकर गाँव को स्वायत्त इकाई बनाते थे, तब तक इस विभाजन की क्रूरता परस्पर सांझेदारी में छुपी रहती थी कि चलिए जैसे-तैसे एक व्यवस्था काम कर रही है|हालांकि शोषण का मुफीद सिलसिला यहीं से पनपता था| जब कारखानों, उद्योगों ने गाँव की आर्थिक स्वायत्तता को ध्वस्त किया तब जाति और उससे जुड़े कर्म की अनिवार्यता भी समाप्त होना ही थी और वह भी ज्यादा समझदारी भरे जीवन संघर्ष में, मगर यह नहीं हुआ।
 
राजनीति हमेशा सफलता का मार्ग ढूढती है, उसे परास्त होना रास नहीं आता, इसके लिये दुर्नीति पर चलना उसे सबसे सहूलियत भरा लगता है और इसी कारण अन्य अनेक वजहों के साथ 'जातिवाद' जैसी सरल वजह भी राजनीति ने एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल की। 

         गांधी,लोहिया,जयप्रकाश नारायण जैसे राजनीति के अत्यंत मानवीय और व्यापक विचार रखने वालों ने परस्पर विभाजन को अभिशप्त आम जन समुदाय को जाति के भेद की निर्मम चलताऊ व्याख्या से उबारने की भरसक कोशिशें की पर उनके बाद की राजनीति उनके नहीं रहने के वर्षों बाद उन्हें भी जाति के फ्रेम में सुशोभित करती है और इन तीनों के ऊपर इस कदर जाति आरोपित करने की चेष्टा करती है जैसे कि ये अपनी जाति के माध्यम से लाभ लेते रहे हों! अतीत की दुर्व्याख्यायों का चलन इस समय कुछ ज्यादा ही बढ़ा है| इन्हीं के नाम पर राजनीति में पहचान बना सके लोग सबसे ज्यादा जातिवादी हैं,इस तथ्य से किसे असहमति हो सकती है|
 
 
       हम भले ही इस बात का मुगालता रखें कि समझदार लोग छोटे-छोटे विभाजनों से परे 'बडी दृष्टि' से जीवन जीते हैं लेकिन यह सच है कि ऐसे लोग यदि सत्ता की महत्त्वाकांक्षा के रास्ते चल पड़े  हैं तो वे 'बडी दृष्टि' की कनखियों से लाभ का अर्थशास्त्र निर्मित करते हैं। 'जाति' लाभ का अचूक और अविश्‍वसनीय शास्त्र है।यह तथ्य भी एकदम निरापद है कि ऊँची कही जाने वाली जातियों ने उनसे कमतर घोषित कर दी गयी जातियों पर हमेशा अत्याचार ही किया है,अपवाद के बहुत कम ही मायने होते हैं|ब्राह्मण, बनिया, यादव आदि व और धर्मों की जातियां भले ही निजी जीवन संघर्ष में एक दूसरे पर आश्रित हैं लेकिन अहंकार और प्रभुत्व के प्रश्न पर सबकी तलवारें चमकती रहतीं हैं।
हमारे देश  में यदि जाति आधारित जनगणना को उजागर किया जाता है तो इससे कोई भयंकर क्रांति तो  नहीं आयेगी और न ही सात्विक विनम्रता ही उपजेगी, यदि कुछ हो सकता है तो वह यह है कि एक भ्रम के मायाजाल से निकलकर हम अपनी वास्तविकता से रूबरू हो सकते हैं।हम जान सकेंगे की जिस वर्चस्व के गणित से कभी जाति का जन्म हुआ होगा क्या उसी वर्चस्व को बचाए रखने के लिए जनगणना में जाति को छुपाया जाता रहा ?

                                                                                mschoubey.blogspot.com          

Saturday 6 June 2015

  इरोम की उम्मीद 
               मिथलेश शरण चौबे

       दिल्ली आई थी वह,पिछली बार की तरह फिर उम्मीद लेकर|नाक में लटकती आहार नली और बिखरे हुए बालों की अपनी तेरह बरस पुरानी पहचान के साथ|देश में चुनाव होते हैं,सरकारे बनती हैं,वह आग्रह करती है और अपनी स्थगित उम्मीद के साथ वापस अपने संघर्ष के अकेलेपन में लौट जाती है|दुनियादारी के जीवन से बहुत दूर एक अदम्य संघर्ष का पर्याय बन चुके अपने एकाकी जीवन में|कैसी होती हैं वे ज़िदें जिनके लिए जीवन को दाव पर लगाकर अडिग रहते हुए अपने संघर्ष को एक मुकम्मल वजूद देना पड़ता है,इरोम शर्मिला साक्ष्य है उनका|इरोम के संघर्ष की व्यापक कथा हमारी युवा पीढ़ी के लिए अनायास ही बौना कर देती है|अपनी बेहद निजी व भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं में दिन रात सिर खपाते लोगों से अलग कुछ शख्स ऐसे भी होते हैं,इरोम जैसे,अपने किंचित यत्नों की पराजय पर विषादग्रस्त होते युवाओं की सोच को शर्माते इरोम के इरादे|

       जनपक्षधर मुद्दों पर संघर्षरत लोगों की अनसुनी गाथा नयी नहीं है|अतीत और वर्तमान के अनेक जीवंत उदाहरण इनके साथ हैं|सामान्यजन के लिए न्याय की आर्त्त पुकार को अनसुना करना सत्ताओं का स्वभाव होता है,इनसे वह लोकप्रियता व समर्थन नहीं जुटता जिनसे चुनाव की राजनीति साधी जा सके|इनको नजरंदाज करना ऐसे ही अनेक जनहितैषी मुद्दों के पैदा होने की संभावना को ही नष्ट करना है|यह एक ऐसी रणनीति है जिसे बहुत सजग रहकर ही आप जान सकते हैं|सत्ताएं बहुधा ऐसे निर्णय लेने में दिलचस्पी दिखाती हैं जो सामान्य पीड़ित जन को सचमुच की राहत देने के बजाए सत्ता की लोकप्रियता का ढिंढोरा ज्यादा पीटें |यदि यह सच नहीं है तो आखिर क्यों गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को वाजिब अनाज की उपलब्धता से ध्यान हटाकर कोई सरकार बुजुर्गों को तीर्थयात्राएं कराये|भुखमरी,जातिवाद व सामंती वर्चस्व के खौफ़ को मिटाने के तरीकों पर काम करने के बजाए कुछेक हजार विद्यार्थियों को लेपटाप बांटे|बुनियादी सुविधाओं की समुचित आपूर्ति के बजाए बड़े-बड़े पूंजीपतियों को निवेश का निमंत्रण दे|स्त्रियों पर बर्बरता की घटनाओं पर ज़रूरी कार्यावाही के बजाए बेतुके-अप्रासंगिक-अमानवीय बयानों से खुद की विफलता छुपाये|  

       मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला पिछले तेरह बरस से भूख हड़ताल परहैं,अपनी अट्ठाईस बरस की उम्र से| 1958 से अरुणाचल प्रदेश,मेघालय,मणिपुर,असम,नागालैंड, मिजोरम,त्रिपुरा में क्रियाशील ‘सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम 1958’जिसे अंग्रेजी संक्षिप्ति में अफस्पा कहते हैं,को हटाने की मांग के लिए इरोम की यह भूख हड़ताल है|इस क़ानून के तहत सुरक्षा बलों को किसी को भी देखते ही गोली मारने या बिना वारंट के गिरफ्तार करने का अधिकार है|4 नवंबर 2000 को इरोम की भूख हड़ताल के ठीक दो दिन पहले इसी क़ानून के तहत सुरक्षा बलों की गोलीबारी में दस लोग मारे गए थे जिसमें 62 वर्षीय वृद्ध महिला लेसंगबम इबेतोमी व बहादुरी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चंद्रमणि जैसे निपट निर्दोष शामिल थे|इस नृशंसता ने इरोम को दहला दिया और उन्होंने हजारों निर्दोषों की मौत के जिम्मेदार इस क़ानून को हटाने के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाया|

         संसार की सबसे लम्बी भूख हड़ताल कर रही,मणिपुर में आयरन लेडी नाम से विख्यात इरोम को परिवारजनों से मिलने पर पाबंदी है और उनपर आत्महत्या की कोशिश का मुकदमा भी चला दिया गया है|गांधी को अपना आदर्श मानने वाली इरोम के संघर्ष को वैसे तो लाखों लोगों का सलाम हासिल है लेकिन जिस जघन्य क़ानून से निजात दिलाने के लिए वे संघर्षरत हैं वह किसी भी केंद्र सरकार के लिए चिंतनीय नहीं बन सका|1990 से जम्मू कश्मीर में भी क्रियाशील यह क़ानून अब तक हजारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुला चुका है|यह सही है कि पूर्वोत्तर के सात राज्यों व जम्मू कश्मीर में अनेक अलगाववादी संगठनों की हिंस्र-क्रियाशीलता के कारगर प्रतिरोध के लिए यह क़ानून अस्तित्व में आया परन्तु अब तक की इस क़ानून की परिणति यही प्रश्न छोड़ती है कि क्या क़ानून बेगुनाहों की मौत के लिए बनते हैं? इरोम पिछली बार की तरह ही इस बार भी केंद्र की नयी सरकार के प्रति उम्मीद रखती हैं|हम इरोम के संघर्ष की तरह ही उनकी उम्मीद के साथ भी हैं|


Tuesday 14 April 2015

उपयोग के गांधी






             मिथलेश शरण चौबे

             सबके अपने-अपने गांधी हैं|विरल करने की अहमन्य चेष्टाओं के बावजूद वे निरन्तर सघन होते जा रहे हैं| यदि लाखों के लिए उनका होना एक तरह से जीवन की सार्थक सम्भावना है तो ऐसे भी बहुत है जो उन्हें कोसने का कर्म अपने बचे रहने की अपरिहार्यता की तरह निभाते हैं|इन दोनों के अलावा ऐसे भी लोग हैं जिन्हें किसी उदात्त की उपस्थिति या फिर क्रूरतापूर्वक उसकी निंदा से कोई फर्क नहीं पड़ता,जब जहां स्थिति अनुकूल बनती हो उसी करवट बैठ जाना उनका एकमात्र निष्कर्ष होता है| हालांकि लगता तो ऐसा ही है कि गांधी इन्हीं सब के बीच आवाजाही कर रहे हैं पर उनकी व्याप्ति इतनी व्यापक है कि होने न होने के परे उनकी उपस्थिति दिशा और काल की अवधियों का विनम्र अतिक्रमण कर हर उस जगह है जहां मनुष्यता की आकांक्षा जीवित है|वे इतने सरल हैं कि मैले फटे कपड़ों में अधढके साधारण लोगों के पास एकदम से हरसमय उपस्थित हैं और इतने कठिन कि बार-बार उनकी तस्वीरों पर माला पहनाने वालों व हर समय उनका नाम जपकर अपनी साख बनाने में लगे लोगों की तमाम चेष्टाओं के बाद भी वे वहां से नदारद हैं| धर्म,राजनीति,साहित्य,विचार,संस्कृति,अर्थशास्त्र,सामाजिक उत्कर्ष  आदि सभी के लिए वे दशकों से अनिवार्य रहे हैं|वे भले ही एक साथ सरल और कठिन हों लेकिन अब वे उपयोगी इतने ज्यादा हो चले हैं कि उनके बिना किसी तरह की राजनैतिक और समूची सांस्कृतिक हैसियत का होना बहुधा संभव नहीं लगता|
            जो लोग उनके नाम पर सफाई अभियान चलाते हैं उन्हीं के यहां सबसे ज्यादा वैचारिक गंदगी है|वे गांधी के हत्यारे का मंदिर बनाना चाहते हैं,बार-बार उसका नामोल्लेख करते हैं|उन्होंने गांधी के नेहरु लगाव की दुर्व्याख्या कर सरदार पटेल को अपना पक्ष बनाने की कोशिश की है|वे हमेशा अपने कमतर और आजादी के लिए अनुपयोगी साबित नेताओं को गांधी के ऊपर रखने की ज्यादिती करते हैं|उनके पारिवारिक संगठन नित नए निंदा प्रलाप किये जाते हैं और फिर मीडिया में विपरीत खबर से बचने के लिए कोई एक क्षति नियंत्रक बयान देकर मुक्ति पा लेते हैं|स्वाधीनता संघर्ष में अपनी भूमिका का प्रश्न उन्हें तिलमिलाकर गांधी निंदा के अचूक लेकिन बेहया अस्त्र की पुनरावृत्ति की ओर ले जाता है| देश विभाजन और भगत सिंह की फांसी पर गांधी की क्रियाशीलता का दूषित कुपाठ उनके प्रशिक्षणों का जरूरी हिस्सा है|
          गांधी के नाम पर अपने समूचे अस्तित्व को दिखाने की कोशिश करते हुए कुछ ऐसे भी हैं जिनका काम गांधी के बगैर चलता ही नहीं|उनके यहां गांधी एक अदद जरूरी औपचारिकता हैं जिनकी दुहाई के बिना कुछ भी नहीं हो सकता|गांधी के विचार,मूल्य,शैली,सौजन्य से दूर तक नाता नहीं रखने के बावजूद उनकी प्रतिमूर्ति के असल प्रतीक बनना ही उनकी एकमात्र इच्छा है|इन दोनों के अलावा भी बहुतों को गांधी का उपयोग है|किसी मुद्दे पर जनसमर्थन हासिल करने के बड़े प्रतीक के रूप में गांधी की तस्वीर,खादी,उनकी बातें,उन्हें प्रिय रहे गीत-संगीत का सहारा लेना जरूरी-सा हो गया है|खुद गांधी नहीं जानते होंगे कि वे अदृश्य उपस्थिति में कितने उपयोगी हो सकते हैं|
          एक अनुपस्थित का इस कदर उपस्थिति होना कुछ लुभाता-सा है|जीवन भर अपने से और देश व मनुष्यता के दुश्मनों से अत्यंत मानवीयता के साथ संघर्ष करते रहे गांधी को लेकर आज भी कितना संघर्ष है|वे जिन शोषित,वंचित,पीड़ित लोगों के पास रहना चाहते हैं और रहते भी हैं,उन्हें ही उनकी निर्विकार जरूरत है|गांधी के पास ही उनके लिए मार्मिक संवेदना और पीड़ा हरने की अनिवार्य बेचैनी  है|इन लोगों से गांधी को छीनकर अपने पक्ष-प्रतिपक्ष की तरह इस्तेमाल करने में लगे लोगों को गांधी के होने का वास्तविक अर्थ ही शायद नहीं पता|गांधी जितने सघन होते जा रहे हैं उसके ही समानांतर जन सामान्य की समस्याएं ज्यादा जटिल और खौफनाक होती जा रही हैं|गांधी को यदि गांधी की तरह न समझकर उपयोग की तरह बरता जाएगा तो उनकी उपस्थिति ऐसी ही रहेगी अन्यथा मनुष्य मात्र के उत्कर्ष का एक बेहद नैतिक विचार उनके यहां मिलता है|


                                                            

Sunday 18 January 2015

हाशिए के लोग





          मिथलेश शरण चौबे

          हमारे समय में राजनीति की हैसियत ने कुछ ज्यादा ही केन्द्रीयता हासिल कर ली है किन्तु इस कदर कि उसके अलावा अन्य सभी हाशिए पर फेक दिए जाएं  एक बड़े संकट का सबब है और इसलिए चिंतनीय है|शासन की सूत्रधार राजनीति के नुमाइंदे पहले अनेक सामाजिक सरोकारों से गहरे संबद्ध रहते थे और उनसे मिली पहचान पर गौरवान्वित भी | आज जैसी आक्रान्त छवि राजनीति की नहीं रही|कोई शिक्षाविद,साहित्यकार,समाजसेवी,अर्थशास्त्री,कानूनविद,वैज्ञानिक,चिकित्सक, नौकरशाह अपनी मूल पहचान से इतर राजनैतिक सक्रियता का निर्वाह करते थे और इसी वजह से इन सभी पहचानों की गरिमा के लिए राजनीति के पोषण की जरूरत नहीं रही|समाज में इनकी कर्तव्यनिष्ठा के किस्से भी प्रचलित रहते थे| राजनीति में इन तमाम क्षेत्रों से लोगों का प्रवेश सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी सामाजिकता के सघन व निर्णययुक्त सक्रिय निर्वाह की मंशा से होता था और तब भी उनका समाज के अन्यान्य क्षेत्रों के प्रति आदर भाव कायम रहता था|राजनीति में प्रवेश, पूर्व सामाजिक सक्रिय पृष्ठभूमि के बिना सम्भव नहीं था|स्वार्थों को सामाजिक कर्मों के ऊपर रहने की जगह जैसे-जैसे मिलती चली गयी और राजनीति में उसके पोषण की सर्वाधिक खुली जगह सम्भव हुयी,राजनीति के सारे नैतिक रहे तकाजे लुप्त होते गए| अब जबकि मीडिया में उपस्थिति से हैसियत के पैमाने तय होते और बदलते हैं स्वाभाविक ही राजनीति की दिखाई देती सक्रियता अन्य अनेक लक्षित-अलक्षित सक्रियताओं पर हावी होती जा रही है|ऐसा मान लिया गया है कि जो कुछ हो रहा है वह राजनीति से ही घटित है या कि हर तरह की तरक्की-खुशहाली राजनीति के बगैर सम्भव नहीं है और शासन व राजनीति से पोषित व उपकृत हुए बगैर सभी के लिए पहचान का संकट है|

           यही वजह है कि जिस मीडिया का  हम सामना करते हैं वह राजनीति आक्रान्त मीडिया है और राजनीति में जो सत्ता में है वही मीडिया के लिए सक्रियता का पर्याय है और वही खबर में है शेष खबर-शक्ति की दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं हैं|सत्ता का दबदबा अधिकांश मीडिया में एकदम स्पष्ट दिखाई देता है,कम ही इससे अप्रभावित हैं|आखिर क्या वजह है कि देश में सक्रिय हजारों जनसंघर्षों की  गाथाएं पाठकों-दर्शकों तक अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं पहुंचती और सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष को सीबीआई से मिली राहत की खबर प्रमुखता पाती है|अनेक पर्यावरणविदों के उल्लेखनीय कामों को चलताऊ तरह से दिया जाता है और  राजनैतिक षड्यंत्रों में संलग्न नेताओं का वीरोचित वर्णन मिलता है|इरोम शर्मिला के अनशन का पंद्रहवे वर्ष में प्रवेश एक मामूली खबर नहीं बन पाता जबकि साक्षी,साध्वी निरंजन व प्राची के अनर्गल समाजविरोधी प्रलाप लहर की तरह फैलते जाते हैं|अंधविश्वास,शोषण,धार्मिक पाखंडों के विरुद्ध संघर्षरत और इस वजह से मार दिए जाते प्रतिबद्धों की प्रशंसा के बजाए घृणित कामों को करते लोग सुर्खियां बटोर लेते हैं |हजारों-लाखों विस्थापितों ,आत्महत्या करते किसानों, मजदूरी की तलाश में भटकते बेघरों के जीवन की मर्मभरी व्यथाएं हाशिए पर डाल दी जाती हैं और अपने रसूख के दम पर बच निकलते नेता-अभिनेता क़ानून के आगे मुस्कराते हुए खबर पर हावी हो जाते हैं|अपने अध्यवसाय से अपने-अपने रचनात्मक कर्मों में लीन कलावंतों के सृजन,वैचारिक नजरिये, बेहतर जीवन के स्वप्न,मनुष्यता को लेकर आकांक्षाएं जानने की चेष्टा नहीं की जाती,जिससे शायद समाज में कुछ तो सकारात्मक की ओर जाने की प्रेरणा मिल सकती है|इसके बजाए दूसरों का अतिक्रमण कर अपनी सत्ता पसारते अहमन्य लोगों के जीवन पर झूठ की परते चढ़ाकर पेश करने में कलम और कैमरे कतारबद्ध हो जाते हैं|चार-पांच बच्चों  को पैदा करने की नसीहत में भड़कते लोग विमर्श पर छाये रहते हैं और वे हजारों लोग जो तमाम कठनाइयों में रहकर जनसंख्या नियंत्रण जागरूकता के लिए क्रियाशील हैं,अनचीन्हे रह जाते हैं|

           एक नकारात्मक दुनिया फैलकर हमारी जीवंत,संघर्षरत,सपनों-आकांक्षाओं भरी वास्तविक दुनिया पर इस कदर छा जाती है कि हमें वही सच दिखाई देने लगती है|हम ही कहां इस धुंधलके को हटाने की कोशिश करते हैं|दूसरों पर अभियोग लगाकर मुक्त नहीं हुआ जा सकता|इस अंधेरे में कहीं हमारा धुआं भी तो शामिल नहीं है?