Saturday, 1 August 2015

जनगणना में जाति



         
       
 मिथलेश शरण चौबे

       जाति बहुत बाद में बनी|आदिम मनुष्य सबसे पहले अपने स्थान के कारण अन्य जगहों के मनुष्यों से अलग रहा होगा। जैसे-जैसे आबादी और समझ का विस्तार हुआ मनुष्य को अलग-अलग वर्गीकृत करने के कारण बनते चले गये। बुद्धि और कुछ भले न करवाये वह अहंकार और अलग शक्ति का मार्ग जरूर प्रशस्त करती है,वर्चस्व की मानसिकता ने ज्यों ही अपने पैर पसारना शुरू किया होगा,मनुष्यों के बीच विभाजन की क्रूरता ने जन्म लिया होगा, ऐसे ही मार्गों से कभी जाति नामक व्यवस्था जन्मी होगी यदि हम समाजशास्त्र की तकनीकी में न उलझें तो।हालाँकि यह वर्गीकरण तथाकथित व्यवस्था बनाने के सचेत उपक्रम के अंतर्गत ही शुरू हुआ होगा जिसका आरम्भ वर्ण विभाजन जैसे मनुष्यता विरोधी क्रम में दिखता है|आगे चलकर 'विकास' जैसे लुभावने और समय की अनिवार्यता पर खरे उतारे जाते प्रत्यय ने इसे बिल्कुल अपरिहार्य बना दिया। हो तो यह भी सकता था कि सभी मनुष्य सभी तरह के काम करें और सांझेदारी में जीवन जिएँ लेकिन सबके अलग-अलग कार्य वितरण में दिखती सुविधा ने ही इस जाति व्यवस्था को पोषित किया। 

        गाँवों में कुम्हार, मोची, बढ़ई, पंडित, बनिया, जुलाहा, किसान, लुहार मिलकर गाँव को स्वायत्त इकाई बनाते थे, तब तक इस विभाजन की क्रूरता परस्पर सांझेदारी में छुपी रहती थी कि चलिए जैसे-तैसे एक व्यवस्था काम कर रही है|हालांकि शोषण का मुफीद सिलसिला यहीं से पनपता था| जब कारखानों, उद्योगों ने गाँव की आर्थिक स्वायत्तता को ध्वस्त किया तब जाति और उससे जुड़े कर्म की अनिवार्यता भी समाप्त होना ही थी और वह भी ज्यादा समझदारी भरे जीवन संघर्ष में, मगर यह नहीं हुआ।
 
राजनीति हमेशा सफलता का मार्ग ढूढती है, उसे परास्त होना रास नहीं आता, इसके लिये दुर्नीति पर चलना उसे सबसे सहूलियत भरा लगता है और इसी कारण अन्य अनेक वजहों के साथ 'जातिवाद' जैसी सरल वजह भी राजनीति ने एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल की। 

         गांधी,लोहिया,जयप्रकाश नारायण जैसे राजनीति के अत्यंत मानवीय और व्यापक विचार रखने वालों ने परस्पर विभाजन को अभिशप्त आम जन समुदाय को जाति के भेद की निर्मम चलताऊ व्याख्या से उबारने की भरसक कोशिशें की पर उनके बाद की राजनीति उनके नहीं रहने के वर्षों बाद उन्हें भी जाति के फ्रेम में सुशोभित करती है और इन तीनों के ऊपर इस कदर जाति आरोपित करने की चेष्टा करती है जैसे कि ये अपनी जाति के माध्यम से लाभ लेते रहे हों! अतीत की दुर्व्याख्यायों का चलन इस समय कुछ ज्यादा ही बढ़ा है| इन्हीं के नाम पर राजनीति में पहचान बना सके लोग सबसे ज्यादा जातिवादी हैं,इस तथ्य से किसे असहमति हो सकती है|
 
 
       हम भले ही इस बात का मुगालता रखें कि समझदार लोग छोटे-छोटे विभाजनों से परे 'बडी दृष्टि' से जीवन जीते हैं लेकिन यह सच है कि ऐसे लोग यदि सत्ता की महत्त्वाकांक्षा के रास्ते चल पड़े  हैं तो वे 'बडी दृष्टि' की कनखियों से लाभ का अर्थशास्त्र निर्मित करते हैं। 'जाति' लाभ का अचूक और अविश्‍वसनीय शास्त्र है।यह तथ्य भी एकदम निरापद है कि ऊँची कही जाने वाली जातियों ने उनसे कमतर घोषित कर दी गयी जातियों पर हमेशा अत्याचार ही किया है,अपवाद के बहुत कम ही मायने होते हैं|ब्राह्मण, बनिया, यादव आदि व और धर्मों की जातियां भले ही निजी जीवन संघर्ष में एक दूसरे पर आश्रित हैं लेकिन अहंकार और प्रभुत्व के प्रश्न पर सबकी तलवारें चमकती रहतीं हैं।
हमारे देश  में यदि जाति आधारित जनगणना को उजागर किया जाता है तो इससे कोई भयंकर क्रांति तो  नहीं आयेगी और न ही सात्विक विनम्रता ही उपजेगी, यदि कुछ हो सकता है तो वह यह है कि एक भ्रम के मायाजाल से निकलकर हम अपनी वास्तविकता से रूबरू हो सकते हैं।हम जान सकेंगे की जिस वर्चस्व के गणित से कभी जाति का जन्म हुआ होगा क्या उसी वर्चस्व को बचाए रखने के लिए जनगणना में जाति को छुपाया जाता रहा ?

                                                                                mschoubey.blogspot.com          

Saturday, 6 June 2015

  इरोम की उम्मीद 
               मिथलेश शरण चौबे

       दिल्ली आई थी वह,पिछली बार की तरह फिर उम्मीद लेकर|नाक में लटकती आहार नली और बिखरे हुए बालों की अपनी तेरह बरस पुरानी पहचान के साथ|देश में चुनाव होते हैं,सरकारे बनती हैं,वह आग्रह करती है और अपनी स्थगित उम्मीद के साथ वापस अपने संघर्ष के अकेलेपन में लौट जाती है|दुनियादारी के जीवन से बहुत दूर एक अदम्य संघर्ष का पर्याय बन चुके अपने एकाकी जीवन में|कैसी होती हैं वे ज़िदें जिनके लिए जीवन को दाव पर लगाकर अडिग रहते हुए अपने संघर्ष को एक मुकम्मल वजूद देना पड़ता है,इरोम शर्मिला साक्ष्य है उनका|इरोम के संघर्ष की व्यापक कथा हमारी युवा पीढ़ी के लिए अनायास ही बौना कर देती है|अपनी बेहद निजी व भौतिक महत्त्वाकांक्षाओं में दिन रात सिर खपाते लोगों से अलग कुछ शख्स ऐसे भी होते हैं,इरोम जैसे,अपने किंचित यत्नों की पराजय पर विषादग्रस्त होते युवाओं की सोच को शर्माते इरोम के इरादे|

       जनपक्षधर मुद्दों पर संघर्षरत लोगों की अनसुनी गाथा नयी नहीं है|अतीत और वर्तमान के अनेक जीवंत उदाहरण इनके साथ हैं|सामान्यजन के लिए न्याय की आर्त्त पुकार को अनसुना करना सत्ताओं का स्वभाव होता है,इनसे वह लोकप्रियता व समर्थन नहीं जुटता जिनसे चुनाव की राजनीति साधी जा सके|इनको नजरंदाज करना ऐसे ही अनेक जनहितैषी मुद्दों के पैदा होने की संभावना को ही नष्ट करना है|यह एक ऐसी रणनीति है जिसे बहुत सजग रहकर ही आप जान सकते हैं|सत्ताएं बहुधा ऐसे निर्णय लेने में दिलचस्पी दिखाती हैं जो सामान्य पीड़ित जन को सचमुच की राहत देने के बजाए सत्ता की लोकप्रियता का ढिंढोरा ज्यादा पीटें |यदि यह सच नहीं है तो आखिर क्यों गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को वाजिब अनाज की उपलब्धता से ध्यान हटाकर कोई सरकार बुजुर्गों को तीर्थयात्राएं कराये|भुखमरी,जातिवाद व सामंती वर्चस्व के खौफ़ को मिटाने के तरीकों पर काम करने के बजाए कुछेक हजार विद्यार्थियों को लेपटाप बांटे|बुनियादी सुविधाओं की समुचित आपूर्ति के बजाए बड़े-बड़े पूंजीपतियों को निवेश का निमंत्रण दे|स्त्रियों पर बर्बरता की घटनाओं पर ज़रूरी कार्यावाही के बजाए बेतुके-अप्रासंगिक-अमानवीय बयानों से खुद की विफलता छुपाये|  

       मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला पिछले तेरह बरस से भूख हड़ताल परहैं,अपनी अट्ठाईस बरस की उम्र से| 1958 से अरुणाचल प्रदेश,मेघालय,मणिपुर,असम,नागालैंड, मिजोरम,त्रिपुरा में क्रियाशील ‘सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम 1958’जिसे अंग्रेजी संक्षिप्ति में अफस्पा कहते हैं,को हटाने की मांग के लिए इरोम की यह भूख हड़ताल है|इस क़ानून के तहत सुरक्षा बलों को किसी को भी देखते ही गोली मारने या बिना वारंट के गिरफ्तार करने का अधिकार है|4 नवंबर 2000 को इरोम की भूख हड़ताल के ठीक दो दिन पहले इसी क़ानून के तहत सुरक्षा बलों की गोलीबारी में दस लोग मारे गए थे जिसमें 62 वर्षीय वृद्ध महिला लेसंगबम इबेतोमी व बहादुरी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चंद्रमणि जैसे निपट निर्दोष शामिल थे|इस नृशंसता ने इरोम को दहला दिया और उन्होंने हजारों निर्दोषों की मौत के जिम्मेदार इस क़ानून को हटाने के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाया|

         संसार की सबसे लम्बी भूख हड़ताल कर रही,मणिपुर में आयरन लेडी नाम से विख्यात इरोम को परिवारजनों से मिलने पर पाबंदी है और उनपर आत्महत्या की कोशिश का मुकदमा भी चला दिया गया है|गांधी को अपना आदर्श मानने वाली इरोम के संघर्ष को वैसे तो लाखों लोगों का सलाम हासिल है लेकिन जिस जघन्य क़ानून से निजात दिलाने के लिए वे संघर्षरत हैं वह किसी भी केंद्र सरकार के लिए चिंतनीय नहीं बन सका|1990 से जम्मू कश्मीर में भी क्रियाशील यह क़ानून अब तक हजारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुला चुका है|यह सही है कि पूर्वोत्तर के सात राज्यों व जम्मू कश्मीर में अनेक अलगाववादी संगठनों की हिंस्र-क्रियाशीलता के कारगर प्रतिरोध के लिए यह क़ानून अस्तित्व में आया परन्तु अब तक की इस क़ानून की परिणति यही प्रश्न छोड़ती है कि क्या क़ानून बेगुनाहों की मौत के लिए बनते हैं? इरोम पिछली बार की तरह ही इस बार भी केंद्र की नयी सरकार के प्रति उम्मीद रखती हैं|हम इरोम के संघर्ष की तरह ही उनकी उम्मीद के साथ भी हैं|


Tuesday, 14 April 2015

उपयोग के गांधी






             मिथलेश शरण चौबे

             सबके अपने-अपने गांधी हैं|विरल करने की अहमन्य चेष्टाओं के बावजूद वे निरन्तर सघन होते जा रहे हैं| यदि लाखों के लिए उनका होना एक तरह से जीवन की सार्थक सम्भावना है तो ऐसे भी बहुत है जो उन्हें कोसने का कर्म अपने बचे रहने की अपरिहार्यता की तरह निभाते हैं|इन दोनों के अलावा ऐसे भी लोग हैं जिन्हें किसी उदात्त की उपस्थिति या फिर क्रूरतापूर्वक उसकी निंदा से कोई फर्क नहीं पड़ता,जब जहां स्थिति अनुकूल बनती हो उसी करवट बैठ जाना उनका एकमात्र निष्कर्ष होता है| हालांकि लगता तो ऐसा ही है कि गांधी इन्हीं सब के बीच आवाजाही कर रहे हैं पर उनकी व्याप्ति इतनी व्यापक है कि होने न होने के परे उनकी उपस्थिति दिशा और काल की अवधियों का विनम्र अतिक्रमण कर हर उस जगह है जहां मनुष्यता की आकांक्षा जीवित है|वे इतने सरल हैं कि मैले फटे कपड़ों में अधढके साधारण लोगों के पास एकदम से हरसमय उपस्थित हैं और इतने कठिन कि बार-बार उनकी तस्वीरों पर माला पहनाने वालों व हर समय उनका नाम जपकर अपनी साख बनाने में लगे लोगों की तमाम चेष्टाओं के बाद भी वे वहां से नदारद हैं| धर्म,राजनीति,साहित्य,विचार,संस्कृति,अर्थशास्त्र,सामाजिक उत्कर्ष  आदि सभी के लिए वे दशकों से अनिवार्य रहे हैं|वे भले ही एक साथ सरल और कठिन हों लेकिन अब वे उपयोगी इतने ज्यादा हो चले हैं कि उनके बिना किसी तरह की राजनैतिक और समूची सांस्कृतिक हैसियत का होना बहुधा संभव नहीं लगता|
            जो लोग उनके नाम पर सफाई अभियान चलाते हैं उन्हीं के यहां सबसे ज्यादा वैचारिक गंदगी है|वे गांधी के हत्यारे का मंदिर बनाना चाहते हैं,बार-बार उसका नामोल्लेख करते हैं|उन्होंने गांधी के नेहरु लगाव की दुर्व्याख्या कर सरदार पटेल को अपना पक्ष बनाने की कोशिश की है|वे हमेशा अपने कमतर और आजादी के लिए अनुपयोगी साबित नेताओं को गांधी के ऊपर रखने की ज्यादिती करते हैं|उनके पारिवारिक संगठन नित नए निंदा प्रलाप किये जाते हैं और फिर मीडिया में विपरीत खबर से बचने के लिए कोई एक क्षति नियंत्रक बयान देकर मुक्ति पा लेते हैं|स्वाधीनता संघर्ष में अपनी भूमिका का प्रश्न उन्हें तिलमिलाकर गांधी निंदा के अचूक लेकिन बेहया अस्त्र की पुनरावृत्ति की ओर ले जाता है| देश विभाजन और भगत सिंह की फांसी पर गांधी की क्रियाशीलता का दूषित कुपाठ उनके प्रशिक्षणों का जरूरी हिस्सा है|
          गांधी के नाम पर अपने समूचे अस्तित्व को दिखाने की कोशिश करते हुए कुछ ऐसे भी हैं जिनका काम गांधी के बगैर चलता ही नहीं|उनके यहां गांधी एक अदद जरूरी औपचारिकता हैं जिनकी दुहाई के बिना कुछ भी नहीं हो सकता|गांधी के विचार,मूल्य,शैली,सौजन्य से दूर तक नाता नहीं रखने के बावजूद उनकी प्रतिमूर्ति के असल प्रतीक बनना ही उनकी एकमात्र इच्छा है|इन दोनों के अलावा भी बहुतों को गांधी का उपयोग है|किसी मुद्दे पर जनसमर्थन हासिल करने के बड़े प्रतीक के रूप में गांधी की तस्वीर,खादी,उनकी बातें,उन्हें प्रिय रहे गीत-संगीत का सहारा लेना जरूरी-सा हो गया है|खुद गांधी नहीं जानते होंगे कि वे अदृश्य उपस्थिति में कितने उपयोगी हो सकते हैं|
          एक अनुपस्थित का इस कदर उपस्थिति होना कुछ लुभाता-सा है|जीवन भर अपने से और देश व मनुष्यता के दुश्मनों से अत्यंत मानवीयता के साथ संघर्ष करते रहे गांधी को लेकर आज भी कितना संघर्ष है|वे जिन शोषित,वंचित,पीड़ित लोगों के पास रहना चाहते हैं और रहते भी हैं,उन्हें ही उनकी निर्विकार जरूरत है|गांधी के पास ही उनके लिए मार्मिक संवेदना और पीड़ा हरने की अनिवार्य बेचैनी  है|इन लोगों से गांधी को छीनकर अपने पक्ष-प्रतिपक्ष की तरह इस्तेमाल करने में लगे लोगों को गांधी के होने का वास्तविक अर्थ ही शायद नहीं पता|गांधी जितने सघन होते जा रहे हैं उसके ही समानांतर जन सामान्य की समस्याएं ज्यादा जटिल और खौफनाक होती जा रही हैं|गांधी को यदि गांधी की तरह न समझकर उपयोग की तरह बरता जाएगा तो उनकी उपस्थिति ऐसी ही रहेगी अन्यथा मनुष्य मात्र के उत्कर्ष का एक बेहद नैतिक विचार उनके यहां मिलता है|


                                                            

Sunday, 18 January 2015

हाशिए के लोग





          मिथलेश शरण चौबे

          हमारे समय में राजनीति की हैसियत ने कुछ ज्यादा ही केन्द्रीयता हासिल कर ली है किन्तु इस कदर कि उसके अलावा अन्य सभी हाशिए पर फेक दिए जाएं  एक बड़े संकट का सबब है और इसलिए चिंतनीय है|शासन की सूत्रधार राजनीति के नुमाइंदे पहले अनेक सामाजिक सरोकारों से गहरे संबद्ध रहते थे और उनसे मिली पहचान पर गौरवान्वित भी | आज जैसी आक्रान्त छवि राजनीति की नहीं रही|कोई शिक्षाविद,साहित्यकार,समाजसेवी,अर्थशास्त्री,कानूनविद,वैज्ञानिक,चिकित्सक, नौकरशाह अपनी मूल पहचान से इतर राजनैतिक सक्रियता का निर्वाह करते थे और इसी वजह से इन सभी पहचानों की गरिमा के लिए राजनीति के पोषण की जरूरत नहीं रही|समाज में इनकी कर्तव्यनिष्ठा के किस्से भी प्रचलित रहते थे| राजनीति में इन तमाम क्षेत्रों से लोगों का प्रवेश सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी सामाजिकता के सघन व निर्णययुक्त सक्रिय निर्वाह की मंशा से होता था और तब भी उनका समाज के अन्यान्य क्षेत्रों के प्रति आदर भाव कायम रहता था|राजनीति में प्रवेश, पूर्व सामाजिक सक्रिय पृष्ठभूमि के बिना सम्भव नहीं था|स्वार्थों को सामाजिक कर्मों के ऊपर रहने की जगह जैसे-जैसे मिलती चली गयी और राजनीति में उसके पोषण की सर्वाधिक खुली जगह सम्भव हुयी,राजनीति के सारे नैतिक रहे तकाजे लुप्त होते गए| अब जबकि मीडिया में उपस्थिति से हैसियत के पैमाने तय होते और बदलते हैं स्वाभाविक ही राजनीति की दिखाई देती सक्रियता अन्य अनेक लक्षित-अलक्षित सक्रियताओं पर हावी होती जा रही है|ऐसा मान लिया गया है कि जो कुछ हो रहा है वह राजनीति से ही घटित है या कि हर तरह की तरक्की-खुशहाली राजनीति के बगैर सम्भव नहीं है और शासन व राजनीति से पोषित व उपकृत हुए बगैर सभी के लिए पहचान का संकट है|

           यही वजह है कि जिस मीडिया का  हम सामना करते हैं वह राजनीति आक्रान्त मीडिया है और राजनीति में जो सत्ता में है वही मीडिया के लिए सक्रियता का पर्याय है और वही खबर में है शेष खबर-शक्ति की दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं हैं|सत्ता का दबदबा अधिकांश मीडिया में एकदम स्पष्ट दिखाई देता है,कम ही इससे अप्रभावित हैं|आखिर क्या वजह है कि देश में सक्रिय हजारों जनसंघर्षों की  गाथाएं पाठकों-दर्शकों तक अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं पहुंचती और सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष को सीबीआई से मिली राहत की खबर प्रमुखता पाती है|अनेक पर्यावरणविदों के उल्लेखनीय कामों को चलताऊ तरह से दिया जाता है और  राजनैतिक षड्यंत्रों में संलग्न नेताओं का वीरोचित वर्णन मिलता है|इरोम शर्मिला के अनशन का पंद्रहवे वर्ष में प्रवेश एक मामूली खबर नहीं बन पाता जबकि साक्षी,साध्वी निरंजन व प्राची के अनर्गल समाजविरोधी प्रलाप लहर की तरह फैलते जाते हैं|अंधविश्वास,शोषण,धार्मिक पाखंडों के विरुद्ध संघर्षरत और इस वजह से मार दिए जाते प्रतिबद्धों की प्रशंसा के बजाए घृणित कामों को करते लोग सुर्खियां बटोर लेते हैं |हजारों-लाखों विस्थापितों ,आत्महत्या करते किसानों, मजदूरी की तलाश में भटकते बेघरों के जीवन की मर्मभरी व्यथाएं हाशिए पर डाल दी जाती हैं और अपने रसूख के दम पर बच निकलते नेता-अभिनेता क़ानून के आगे मुस्कराते हुए खबर पर हावी हो जाते हैं|अपने अध्यवसाय से अपने-अपने रचनात्मक कर्मों में लीन कलावंतों के सृजन,वैचारिक नजरिये, बेहतर जीवन के स्वप्न,मनुष्यता को लेकर आकांक्षाएं जानने की चेष्टा नहीं की जाती,जिससे शायद समाज में कुछ तो सकारात्मक की ओर जाने की प्रेरणा मिल सकती है|इसके बजाए दूसरों का अतिक्रमण कर अपनी सत्ता पसारते अहमन्य लोगों के जीवन पर झूठ की परते चढ़ाकर पेश करने में कलम और कैमरे कतारबद्ध हो जाते हैं|चार-पांच बच्चों  को पैदा करने की नसीहत में भड़कते लोग विमर्श पर छाये रहते हैं और वे हजारों लोग जो तमाम कठनाइयों में रहकर जनसंख्या नियंत्रण जागरूकता के लिए क्रियाशील हैं,अनचीन्हे रह जाते हैं|

           एक नकारात्मक दुनिया फैलकर हमारी जीवंत,संघर्षरत,सपनों-आकांक्षाओं भरी वास्तविक दुनिया पर इस कदर छा जाती है कि हमें वही सच दिखाई देने लगती है|हम ही कहां इस धुंधलके को हटाने की कोशिश करते हैं|दूसरों पर अभियोग लगाकर मुक्त नहीं हुआ जा सकता|इस अंधेरे में कहीं हमारा धुआं भी तो शामिल नहीं है?


                                                                                                                      


Sunday, 30 November 2014

काला जादू






     मिथलेश शरण चौबे


      चुनाव आयोग को भले ही बेहतर चुनाव की शाबाशियां मिलती रहती हैं लेकिन उसकी नाक के नीचे से लगातार  कुप्रबंधन और नियंत्रणहीनता के जो उदाहरण मिलते हैं वे उसकी साख पर पर्याप्त खरोंच बनाते जा रहे हैं|फर्जी मतदान की देश व्यापी शिकायतों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता| ऐसी कुछ बड़ी घटनाओं के लिए तो साक्ष्य का बहाना लेकर खारिज करने की कोशिश होती ही है पर इव्हीएम मशीन के युग में भी अनेक बाहुबलियों द्वारा व्यापक स्तर पर की जाती फर्जी वोटिंग की कठोर सच्चाई से मुंह फेरना लोकतंत्र के लिए कैसे ठीक हो सकता है|इसके साक्ष्य उन हजारों-लाखों मतदान वंचित लोगों के चेहरों पर मिल जाते हैं जिनके वोट दिए जा चुके होते हैं और वे अपने नागरिक होने का अंगुली चिह्न भी बतौर निशानी हासिल नहीं कर पाते|

      राजनैतिक पार्टियों द्वारा चुनाव के समय किए जाने वाले वायदे इसी श्रंखला की एक और कड़ी हैं जिन पर किसी तरह का नियंत्रण प्रतीत नहीं होता|वायदे तो सभी पार्टियां करती हैं पर सत्ता मिलने पर वायदे के मुताबिक़ काम करने का संयोग कम ही मिलता है|देश की दोनों बड़ी राजनैतिक पार्टियों कांग्रेस-भाजपा ने चुनाव पूर्व के वायदों को तोड़ने में कुछ ज़्यादा ही महारत पेश की है|लोकप्रियता दिलाने वाली कुछ बेमतलब की योजनाओं से अपनी छवि चमकाते भाजपा शासित राज्यों में राशन के सार्वजनिक वितरण में कुप्रबंधन और व्यापक धांधली चुनावी घोषणाओं को तिलांजलि देने का एक ज्वलंत उदाहरण है और इस दौड़ में भी भाजपा अव्वल नजर आती है| ताजा नमूना काला धन मुद्दे पर भाजपा ने समूचे देश के सामने हैरतअंगेज तरीके का प्रस्तुत किया है|कांग्रेस की यूपीए सरकार ने तो काला धन के मसले को सक्रियता से उचित निराकरण की ओर ले जाने में अनिवार्य पहल में ही आनाकानी की|उससे कई कदम आगे दौड़ते हुए भाजपा ने अपने नेताओं,अपने पक्ष में अनर्गल तर्कों से व्यापक माहौल बनाने में जुटे रामदेव की तरह के मौसमी वक्ताओं और दक्षिणपंथ के घोषित पैरवीकार पत्रकारों से काला धन को एक चुनावी मुद्दा बनाने के लिए जो लाभ के फूले गुब्बारे अपने बयानों से बांटे उनने वोट का तात्कालिक फायदा भाजपा को प्रत्याशित रूप से दिया|इन सबने जनता को लाखों रूपये मिलने के सपनों को बांटकर उसे मुंगेरीलाल बनने पर मजबूर कर दिया और आश्चर्य की बात यह कि ऐसा करते हुए इन सबने काला धन प्राप्ति की संभावना के तमाम जटिल पहलुओं का न तो गंभीरता से विश्लेषण किया और न ही विपक्ष में रहते हुए तत्कालीन सत्ता पक्ष के  इस विषय पर संशयग्रस्त रहने के सच को जाना |अनेक देशों की काला धन वापसी पर हुयी समृद्ध आर्थिकी की  ख़बरों को अपने लिए भी सच और हूबहू अनुकरणीय मानने के अविचारित उतावलेपन ने चुनाव के गणित को साधने का एक उम्दा अस्त्र प्रदान किया|  

     यही वजह है की तबके और अबके वित्तमंत्रियों में सिर्फ़ मुखौटों का अंतर है उनके बयानों,कालाधन वापसी की जटिलता के तर्कों और क्रियाशीलता में कोई फ़र्क नजर नहीं आता| पन्द्रह लाख रूपये प्रति नागरिक का हिसाब बताने वाले बाबा-वकील-पत्रकार सब अदृश्य हैं|विदेश यात्राओं,चुनावी राज्यों में नए-नए वायदों और चंद उद्योगपतियों के बड़े हितों में लीन प्रधानमन्त्री जनता के साथ किए गए इस वायदे को कब तक वायदा बने रहने को अभिशप्त करेंगे|व्यक्तिगत जीवन में विश्वासघात व वादाखिलाफी से प्रभावित रिश्तों से दूर होने में तनिक भी देर नहीं करते लोग क्या इस सार्वजनिक विश्वासघात व वादाखिलाफी को चुप रहकर बर्दाश्त कर जायेंगे?क्या चुनाव आयोग को इस तरह के चुनाव पूर्व वायदों को सत्ता प्राप्ति के बाद पूरा न हो पाने की स्थिति में  राजनैतिक दलों पर किसी तरह की पाबंदी का अंकुश नहीं लगाना चाहिए?

                                                                                

Saturday, 30 August 2014

भाषिक दायित्त्वबोध












मिथलेश शरण चौबे


अंग्रेजी के वर्चस्व की समयानुकूल व वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता की अनेक तर्कों से दुहाई देते हुए लोग जानबूझकर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की अवहेलना करने लगते हैं|हालांकि भाषाएं अपने साहित्य और बोलचाल की विपुलता से ही अपना व्यापक परिसर बनाती हैं फिर भी अपनी भाषाओं को लेकर सत्ताओं का गैरजिम्मेवार व उदासीन रवैया दूसरी भाषाओं के आक्रान्ताओं को मजबूत अवसर ही प्रदान करता है|अधिकांश सूचना माध्यम भी हिंदी की घोषित दुहाई देकर अंग्रेजीपरस्ती के कुशल प्रस्तोता बनकर मुग्ध हैं|कुछ तो अंग्रेजी के पैरवीकार की तरह पेश आ रहे हैं|अस्सी करोड़ लोगों की अभिव्यक्ति के माध्यम का कुशल निर्वाह करने वाली हिंदी के ऊपर दो लाख लोगों द्वारा प्रयुक्त अंग्रेजी को वरीयता देने की कुत्सित चेष्टा की जा रही है|पैरवीकारों को लगता है कि अब हमें सशक्त बन जाना चाहिए,जिसका एकमात्र फौरी तरीका अंग्रेजी की सत्ता को स्वीकारना और व्यवहारतः उसका प्रयोग करना है|


दरअसल हम भारतीयों की आत्मसमर्पण की जल्दबाजी ने भाषा सहित अपनी किसी भी राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति वह दृढ़ता नहीं बनने दी जो हमारे व्यक्तित्व से निःसृत हो|हम अपनी सांस्कृतिक समृद्धियों पर गुमान तो जरूर करते हैं लेकिन उन्हें सहेजने का कर्म अन्यों पर थोपते हैं|यह खुद के अलावा दूसरे पर थोपने की धारणा इतनी अधिक बलवती है कि हर नागरिक का जैसे कोई दायित्त्व ही नहीं बनता|दूसरी तरफ़ दूसरी संस्कृतियों के प्रति भी हमारा अविचारित आकर्षण है|हम अंग्रेजी बोलने पर गौरवान्वित होते हैं,अंग्रेजी में लिखना और विचार करना पसंद करते हैं परन्तु हम यह भूल जाते हैं कि दूसरी भाषा में अभिव्यक्ति के समय हम अनायास ही उसकी भाषिक शक्ति से अनुशासित होने लगते हैं,उसकी सांस्कृतिक संरचना में शामिल हो जाते हैं|मातृभाषा में सीखना व व्यक्त करना सबसे ज्यादा सुगम व रचनात्मक होने के बारे में तमाम विज्ञों के मतैक्य के बावजूद क्रियान्वयन के स्तर पर दूसरी भाषा का अतिरिक्त आग्रह चौंकाता है|


बाजार के आक्रमण ने हमें जो उपभोक्तावादी मनुष्य बना दिया उससे हम अपनी भाषा को भी सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही मान बैठे,भाषा के साथ मनुष्य का जो गहरा सम्बन्ध होना चाहिए वह नहीं रहा|वह अंतर्मन से प्रकट न होकर सामान्य जरूरत की तरह माध्यम बनी| जाहिर है ऐसे सूचना समय में इस काम के लिए  अंग्रेजी ज्यादा मुफीद लगना थी क्योंकि वह बाजार के अनुकूल है|नतीजन हिंदी हमें अपर्याप्त लगने लगी और हमने उसके  इस्तेमाल में अंग्रेजी का अपनी अल्प समझ से समावेश कर एक खिचड़ी रूप ईजाद कर लिया|विज्ञापन,राजनीति और पत्रकारिता ने अपने श्रेष्ठ होने के प्रदर्शन,सूचना के प्रलोभन और दूसरे के विरोध में तर्क के सुविधानुकूल प्रयोगों से भाषा का एक अस्वाभाविक-सा रूप निर्मित किया| महात्मा गांधी और राम मनोहर लोहिया को एम जी व आर एम एल में तब्दील करने वाली बेमानी संक्षिप्तियों के साथ ही इंटरनेट के हिंग्लिश प्रयोगों ने भाषा का एक और ही विखंडित पाठ ईजाद कर डाला|विडम्बना यह है कि हिंदी से ही जीविकोपार्जन करने वाले तक ऐसा करने में पीछे नहीं रहे बल्कि वे तो कला और यथार्थ के नवाचार व निपट भाष्य की कीमत पर यह सब कर रहे हैं|


हमारे देश में ही असमिया,बांग्ला,तमिल आदि भाषाओं के प्रति स्थानीय लोगों की चेतना ही इस वैश्वीय दिखने के गैरजरूरी दबाव के बावजूद उन्हें सर्वप्रमुख बनाए हुए है| देश से बाहर रूस,जर्मनी,फ्रांस आदि अनेक देशों में अंग्रेजी दूसरी भाषा के रूप में भी स्वीकृति नहीं पा सकी|हमारे देश के सुदूर ग्रामीण इलाकों की  अनेक प्रतिभाएं अंग्रेजी में निपुण न होने के कारण अलक्षित रह जाने को अभिशप्त रहती है वहीं संसार के अनेक देशों में यह भी सम्भव है कि कोई व्यक्ति अपने अनुशासन का राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मूर्धन्य हो और उसे अंग्रेजी में चार वाक्य भी बोलना न आते हों| भाषाएं आपस में एक दूसरे को समृद्ध करती हैं,हम ही उनकी महत्ता को न पहचानकर उन्हें परस्पर विरोधी भूमिका में ले आते हैं| अंग्रेजी को किसी भी अन्य भाषा की तरह जानना और विश्व में ज्ञान, सूचना व बाजार के  सम्प्रेषण के लिए  कुछ ज्यादा ही चलन में होने के कारण प्रमुखता से जान लेना बहुत अच्छी बात है,लेकिन हिंदी भाषा की अवहेलना कर उसके अवमूल्यन की स्थिति तक प्रयोग कर अंग्रेजी पर गौरवान्वित होना एक नितांत असांस्कृतिक और अनैतिक कर्म है| इस अतिशयता से दूर,  हिंदी को अच्छी तरह जानते हुए हमें उसकी भाषिक शक्ति से स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहिए,दायित्त्वबोध के साथ ही यही रचनात्मक भी बन सकेगा|  


                                                                                                              


  



Monday, 28 July 2014

विस्थापन का विकास





                 मिथलेश शरण चौबे
       कुछ लोगों की जिंदगी के भयावह संकटों से बहुतों की सुविधाओं के रास्ते बनते हैं|सुविधाओं का निर्णय लेनेवाले और लाभ पानेवाले अक्सर संकटग्रस्त लोगों को विस्मृत ही करते हैं|जैसे-तैसे चल रहे जीवन की गति अचानक उस समय एक नए चाक पर घूमने लगती है जब बिना वाजिब इन्तजाम के नियत स्थिति से ठेलने की कवायद की जाती है|अंधेरे को दूर करने,विकास के पथ पर चलने,संसार को अपनी तरक्की का ग्राफ ऊंचा दिखाने की बिना सुविचारित योजनाओं के हमारे देश में ऐसे निर्णय लिए जाते हैं जैसे कोई शत्रु विध्वंस का ही कोई नया व्यूह रच रहा हो|
      चौड़ी सड़कें,औद्योगिक संयंत्र आदि के लिए किसानों से उर्वर जमीन लेने की अनेक विसंगतियों के साथ ही बांधों की ऊंचाई बढ़ाने के तत्पर निर्णय भी हैरत में डालते हैं|अनेक पूरे-के-पूरे गांव-नगर निर्वासन की पीड़ा भोगने अभिशप्त होते हैं|हजारों मनुष्य,मुश्किल से निर्मित हुए उनके घर,स्कूल,अस्पताल,उपजाऊ जमीन,धार्मिक स्थल,जानवर और उनकी सुरक्षित जगहें,बेघर और समयानुकूल बने उनके ठौर-ठिकाने सब कुछ थोड़े से समय में ऊबे-महत्त्वाकांक्षी-असंवेदनशील लोगों द्वारा लिए निर्णयों की बलि चढ़ जाते हैं|
       चौथे खम्बे के बहुधा सत्तापरस्त समय में सुध लेने वाला कोई कहाँ नजर आ रहा है?वर्ष दो हजार में सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने से पहले उचित विस्थापन के लिए अपना सपष्ट मत जाहिर किया था|सरदार सरोवर बांध परियोजना से अपने सक्रिय होने के तत्काल प्रमाण की लाभाकांक्षा में वर्तमान प्रधानमन्त्री और परियोजना से सर्वाधिक लाभ पानेवाले राज्य गुजरात की मुख्यमंत्री न्यायालय की  इस जनहितैषी मंशा से बहुत  दूर हैं|अपने राज्य के लाभ की कीमत का तर्क इन्हें तो थोड़ा सहारा दे सकता है लेकिन बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना बने मध्यप्रदेश के व्यापमं आक्रान्त मुख्यमंत्री की हौसलापस्त स्वीकृति कहीं बन्दर के हाथ में उस्तरे का माकूल उदाहरण ही न बन जाए|
      देश की पांचवी सबसे बड़ी नदी नर्मदा पर बने इस बांध की ऊंचाई लगभग सत्रह मीटर बढ़ा देने से बिजली और सिचाई का अधिकतम लाभ गुजरात को मिलेगा|महाराष्ट्र,राजस्थान भी पर्याप्त लाभप्रद स्थिति में रहेंगे| कुल प्रभावित 63 हजार परिवारों में  45 हजार अत्यंत कम लाभ की संभावना वाले मध्यप्रदेश के हैं|धार जिले के धरमपुरी कस्बे सहित आसपास के 193 गांव जलमग्न होने के कगार पर हैं|इन प्रभावितों में ज्यादातर आदिवासी,छौटे-मंझौले किसान व दुकानदार,मछुआरे व कुम्हार शामिल हैं|मनुष्यों को विस्थापित करने की तथाकथित योजनाओं में उनके सहयोग से घरेलू व उपयोगी जानवरों का तो किंचित विस्थापन हो सकेगा लेकिन पेड़-पौधे,उपजाऊ जमीन के अस्तित्व को नजरंदाज करना कैसे ठीक है?पर्यावरण क्षति के बचाव का कौन सा विस्थापन तरीका अपनाया जाएगा?
       बडवानी,अंजड,कुक्षी,मनावर,धरमपुरी में उठे विरोध के जनस्वर भी क्या जलमग्न हो जायेंगे?संघर्षरत क्षेत्रीय जनता,नर्मदा बचाव आंदोलन व उसकी वर्षों से विस्थापितों के हक में लड़ती आई नेत्री मेधा पाटकर यदि यह मांग करते हैं कि बिना उचित पुनर्वास के बांध की ऊंचाई नहीं बढ़ाना चाहिए,तो इसमें तथाकथित विकास के विरोध की बू कहां से आती है?वातानुकूलितों में बैठकर निर्णय लेनेवालों को वे हजारों बेघर मनुष्य दिखाई नहीं देते जिनका न राशन कार्ड होता है न कोई पहचान|कहां जायेंगे वे?
       मध्यप्रदेश के हरसूद के विस्थापन को मीडिया ने चिन्ता व जिम्मेदारी से उजागर किया था जिससे पता चलता है कि सत्ता,नौकरशाह और परिस्थिति के फायदे से उतपन्न दलाल किस तरह जनता को गुमराह कर सत्ता के निर्णयों का मूक अनुकर्ता बनाने की कवायद में लगे रहते हैं| सिर्फ मनुष्य के विकास और उसकी सुविधा के इन्तजाम करना दरअसल एकांगी विचार और मनुष्यता विरोधी मुहिम है|जानवर,पेड़-पौधे,उर्वर भूमि को नजरंदाज कर आप तथाकथित विकास की नांव कब तक चला पायेंगे?बांध की ऊंचाई और अन्य विकासजन्य वजहों के लिए विस्थापन प्रक्रिया की जल्दबाजी से किसी का विकास हो न हो,विस्थापन का जरूर विकास हो रहा है|