मिथलेश शरण चौबे
जाति बहुत बाद में बनी|आदिम मनुष्य सबसे पहले
अपने स्थान के कारण अन्य जगहों के मनुष्यों से अलग रहा होगा। जैसे-जैसे आबादी और
समझ का विस्तार हुआ मनुष्य को अलग-अलग वर्गीकृत करने के कारण बनते चले गये। बुद्धि
और कुछ भले न करवाये वह अहंकार और अलग शक्ति का मार्ग जरूर प्रशस्त करती है,वर्चस्व
की मानसिकता ने ज्यों ही अपने पैर पसारना शुरू किया होगा,मनुष्यों के बीच विभाजन
की क्रूरता ने जन्म लिया होगा, ऐसे ही मार्गों से कभी जाति नामक व्यवस्था जन्मी
होगी यदि हम समाजशास्त्र की तकनीकी में न उलझें तो।हालाँकि यह वर्गीकरण तथाकथित व्यवस्था बनाने के सचेत
उपक्रम के अंतर्गत ही शुरू हुआ होगा जिसका आरम्भ वर्ण विभाजन जैसे मनुष्यता विरोधी
क्रम में दिखता है|आगे चलकर 'विकास' जैसे लुभावने और समय की
अनिवार्यता पर खरे उतारे जाते प्रत्यय ने इसे बिल्कुल अपरिहार्य बना दिया। हो तो
यह भी सकता था कि सभी मनुष्य सभी तरह के काम करें और सांझेदारी में जीवन जिएँ
लेकिन सबके अलग-अलग कार्य वितरण में दिखती सुविधा ने ही इस जाति व्यवस्था को पोषित
किया।
गाँवों में कुम्हार, मोची, बढ़ई, पंडित, बनिया, जुलाहा, किसान, लुहार मिलकर गाँव को स्वायत्त इकाई बनाते थे, तब तक इस विभाजन की क्रूरता परस्पर सांझेदारी में छुपी रहती थी कि चलिए जैसे-तैसे एक व्यवस्था काम कर रही है|हालांकि शोषण का मुफीद सिलसिला यहीं से पनपता था| जब कारखानों, उद्योगों ने गाँव की आर्थिक स्वायत्तता को ध्वस्त किया तब जाति और उससे जुड़े कर्म की अनिवार्यता भी समाप्त होना ही थी और वह भी ज्यादा समझदारी भरे जीवन संघर्ष में, मगर यह नहीं हुआ।
राजनीति हमेशा सफलता का मार्ग ढूढती है, उसे परास्त होना रास नहीं आता, इसके लिये दुर्नीति पर चलना उसे सबसे सहूलियत भरा लगता है और इसी कारण अन्य अनेक वजहों के साथ 'जातिवाद' जैसी सरल वजह भी राजनीति ने एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल की।
गांधी,लोहिया,जयप्रकाश नारायण जैसे राजनीति के
अत्यंत मानवीय और व्यापक विचार रखने वालों ने परस्पर विभाजन को अभिशप्त आम जन
समुदाय को जाति के भेद की निर्मम चलताऊ व्याख्या से उबारने की भरसक कोशिशें की पर
उनके बाद की राजनीति उनके नहीं रहने के वर्षों बाद उन्हें भी जाति के फ्रेम में
सुशोभित करती है और इन तीनों के ऊपर इस कदर जाति आरोपित करने की चेष्टा करती है
जैसे कि ये अपनी जाति के माध्यम से लाभ लेते रहे हों! अतीत की दुर्व्याख्यायों का
चलन इस समय कुछ ज्यादा ही बढ़ा है| इन्हीं के नाम पर राजनीति में पहचान बना सके लोग
सबसे ज्यादा जातिवादी हैं,इस तथ्य से किसे असहमति हो सकती है|
हम भले ही इस बात का मुगालता रखें कि समझदार लोग छोटे-छोटे विभाजनों से परे 'बडी दृष्टि' से जीवन जीते हैं लेकिन यह सच है कि ऐसे लोग यदि सत्ता की महत्त्वाकांक्षा के रास्ते चल पड़े हैं तो वे 'बडी दृष्टि' की कनखियों से लाभ का अर्थशास्त्र निर्मित करते हैं। 'जाति' लाभ का अचूक और अविश्वसनीय शास्त्र है।यह तथ्य भी एकदम निरापद है कि ऊँची कही जाने वाली जातियों ने उनसे कमतर घोषित कर दी गयी जातियों पर हमेशा अत्याचार ही किया है,अपवाद के बहुत कम ही मायने होते हैं|ब्राह्मण, बनिया, यादव आदि व और धर्मों की जातियां भले ही निजी जीवन संघर्ष में एक दूसरे पर आश्रित हैं लेकिन अहंकार और प्रभुत्व के प्रश्न पर सबकी तलवारें चमकती रहतीं हैं।
हमारे देश में यदि जाति आधारित जनगणना को उजागर किया जाता है तो इससे कोई भयंकर क्रांति तो नहीं आयेगी और न ही सात्विक विनम्रता ही उपजेगी, यदि कुछ हो सकता है तो वह यह है कि एक भ्रम के मायाजाल से निकलकर हम अपनी वास्तविकता से रूबरू हो सकते हैं।हम जान सकेंगे की जिस वर्चस्व के गणित से कभी जाति का जन्म हुआ होगा क्या उसी वर्चस्व को बचाए रखने के लिए जनगणना में जाति को छुपाया जाता रहा ?