Sunday 23 February 2014




वह इमारत

मिथलेश शरण चौबे


       मुफीद इंतजाम करना था मुल्क की खुशहाली के लिए, वहां बैठकर| ज्यादा ठीक के लिए अनिवार्य विचार, सुदूर गांवों-नगरों की आवाम की जरूरतों को पहचानकर, उन्हें मनुष्य-भर जी पाने की अदद उम्मीद के जरूरी इंतजामों पर बहस करना थी| सुरक्षित और सुकून से रहे आवाम, एक मुकम्मल मुल्क होने से मिलीं सारी आजादियां दिलाकर उन्हें आजाद जीवन देने का अपरिहार्य कर्म करना था| करोड़ों रुपये प्रति मिनिट खर्च होते हैं उनके वहां होने पर, बत्तीस रुपये में पेट नहीं भरता; कर्ज और आपदाओं में लगातार मौत को चुन रहे हैं किसान, विकास के खोखले भूत से रोजमर्रा के संकट नहीं भागते| एक इमारत के संडास पर लाखों रुपये खर्च करने वाले समय में आज भी सिर पर मैला ढोते हैं मनुष्य, पैसठ बरस पहले स्वाधीन हो चुके देश में|
       यहां बैठे हुए लोग आम आदमी से शालीनता की अपील करते हैं,मर्यादा का पाठ पढ़ाते हैं, हदों में रहने की सीख देते हैं,कुछ तो विरोध को कुचलना भी गलत नहीं मानते|उनमें से बहुतों पर बड़े-बड़े दाग हैं, जिन पर नहीं हैं उन पर चिपकी हैं अनंत चुप्पियां| ईमानदारी नैतिकता वहां से निर्वासित हो चुकी है| कुछ सही लोग भी होंगे पर निष्क्रिय| कभी भी पदासीन होने का गुमान वहां तैरता है,अब भी प्रतीक्षा में रहने की बैचेनी मंडराती है|
गली-मुहल्लों के लड़ाई-झगड़ों से ज्यादा गर्हित होती है लड़ाई यहां|महत्वपूर्ण चर्चाओं के समय सोते हैं, अपने वोट बैंक के मुद्दों पर कभी स्प्रे-माइक-कपड़े तो कभी अशालीन शब्दों को लहराते हैं, अच्छे आचरण की सार्वजनिक शपथ लेने वाले| हट्ट-हट्ट बोलकर, आम मनुष्य की अभिव्यक्ति का मजाक बना रहा था एक मसखरा यहां| चीखकर-चिल्लाकर गरीबी,आत्महत्या,मंहगाई, भ्रष्टाचार को मुखर ही नहीं होने देते यहां पर हिंदी बोल सकने के बावजूद अंग्रेजी में अटपटा सा बोलते लोग|
       टेलीविजन में उनके तमाशे देखकर लोग अब चौकते नहीं हैं, कोई आश्चर्य नहीं करते दोनों तरफ की सधी-सधाई पटकथा पर| लोग अपनी निरुपायता पर भले ही क्षुब्ध हों अपनी जुबां को ख़राब करना नहीं चाहते| पढ़े-लिखे समझदार कहे जाने वाले बहुसंख्यक लोगों को इसमें कोई रूचि नहीं है| इस सबसे छेड़खानी करना उन्हें सिरफिरे लोगों की महत्वाकांक्षा लगती है और उन्हें दुःख है कि कविता में नृत्य में नाटक में अब जनता की रुचि नहीं रही| चौबीसों घंटे रोजमर्रा के संघर्षों में पिसती रिआया का कोई सौंदर्यबोध ही नहीं है| अलबत्ता इतना जरूर कहते हैं बुद्धिजीवी कि कलाएं अब हाशिये पर हैं| पता नहीं क्यों उस इमारत में बैठे नुमाइंदों की तरफ धीरे-धीरे
सरक रहे हैं वे भी|
        तार-तार हो रही मनुष्यता, सामंतों के क़दमों में पल रही राजनीति| साधारण लोगों को वहां पहुंचने की
चुनौती देते हैं : अपने ही घर में अपनी पत्नी की जमानत जब्त करा चुके एक मंत्री,अपने राज्य को पटरी से उतारकर पिछले दरवाजे से इमारत में जगह बनाते एक पूर्व मुख्यमंत्री, जाति व धार्मिक समीकरणों से जनता को भरमाकर सत्ता को हथियाते नेता, जनता की परेशानियों से दूर एक परिवार की सेवा में लगे चाटुकार,एक असहिष्णु को मुखिया बनाने की कवायद में उसके हिंसा भरे अतीत को धोने-पोछने में लगे खीजते-चीखते प्रवक्तागण| लोहिया-जेपी के पीछे चलते-चलते नेता हुए लोग पूंजीवाद के बड़े और भद्दे दाग बन चुके हैं और उन्हीं का नाम लेकर अनर्गल भाषा में क्रूरता से झल्लाते हैं निरीह लोगों पर| गांधी यदि होते तो क्या उनको बख्शते, उन्हीं का नाम लेकर चलने वाले लोग| जिनका जो काम होना चाहिए उसके सिवा उन्हें और भी काम हैं और जिन्हें उन पर प्रश्नचिह्न लगाना चाहिए वे अपनी बारी की व्यग्रता में डूबे हैं| हालांकि अपने वेतन भत्ते सुविधाओं पर मिनिटभर में  आमराय बनाते रहे हैं अब तक बड़ी राष्ट्रीय समस्याओं पर मतैक्य न बन पाए लोग| इसी क्रम को जारी रखने के मंसूबे तैरने लगे हैं फिर|
        भूख से गरीबी से शोषण से प्राकृतिक आपदाओं से भ्रष्टाचार से मंहगाई से लड़ते जूझते आम मनुष्य को
बहुत दूर से दिखाई देती उस भव्य इमारत के अन्दर के दृश्य निराश करते हैं| उनकी दमघौटू बेचैनी निरुपाय है|गलेंगे खपेंगे मरेंगे एक दिन वे सभी, खुले आसमान में जी भर के सांस ले पाने का उनका स्वप्न अब भी जीवित है| इतिहास में दर्ज हैं कई खंडहर हो चुकी भव्यताएं, बदलाव के लिए हुई क्रांतियों के दृश्य अब भी तैरते हैं| जिन्दगी सपना दिखाती है,वह सच में भी बदल सकता है ।
                                                                                                                                        



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