Wednesday 2 November 2011

अकेला मनुष्य

सामाजिक धार्मिक राजनैतिक
प्राणी रहते हुए मनुष्य
आर्थिक भौगोलिक जैविक दार्शनिक
प्राणी भी रहता रहा
बहुत सारे और भी प्राणी हुआ वह
अकेला मनुष्य
बहुत पहले नहीं रहा
बहुत पहले उसने अपने
स्वतंत्र मनुष्य होने की
एकमात्र शाश्वत आकांक्षा
लगभग खो दी



कुछ समय पहले
बिना किसी चमत्कार के
घटित हुआ यूं कि
अन्ना हजारे नाम हुआ एक मनुष्य का
हमारे अपने नाम से ज्यादा आकर्षक
और काम से लाख गुना
ज्यादा सार्थक

ज्यादा सार्थक काम में अपने हाथ बंटाने
बहुत सारी परिभाषाओं से लदे
बहुत सारे मनुष्य आगे आये
आगे आये मनुष्य
अकेले मनुष्य नहीं थे इस बात का
ध्यान नहीं रहा उन्हें
उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि
यदि वे एक मनुष्य अन्ना के पक्ष में
कहेंगे कुछ तो वे
मनुष्य होने से थोड़ा
और दूर चले जायेंगे

हालांकि अबकि वे
भाजपा माकपा भाकपा तेदेपा
आदि हो सकते हैं
वे हो तो सकते हैं आरएसएस के एजेंट भी
बस दो वाक्य सत्ताधारी पार्टी के
खिलाफ बोलना ही तो हैं

लोग, जनता, रियाया, आवाम, मनुष्य
इन सभी शब्दों से
लगातार एक पीड़ा झलकती रहती है
यदि ये सभी कांग्रेस भाजपा बसपा
राजद लोजपा तेदपा माकपा
भाकपा द्रमुक अन्नाद्रमुक तृणमूल
शिवसेना अकाली आदि में
तब्दील हो जाएं तो
विलुप्त हो जायेंगी पीड़ाओं से
खदबदाती सारी दुखों की नदियां

कोई मनुष्य मात्र नहीं बचा
सबसे अचूक नुस्खा है
मनुष्य को दुख से उबारने का

अबकि यदि बच गए हों
धोखे से कुछ अकेले मनुष्य मात्र
तो वे भी आखिर करेंगे क्या

रात में अक्सर एक सपना आता है
एक अधनंगा आदमी चश्मा पहने
लाठी टेकते तेजी से जा रहा है
और आश्चर्य यह कि उसके पीछे
असंख्य अकेले मनुष्य मात्र
जा रहे हैं|
 साभार  जनसत्ता - रविवारी , 23  अक्टूबर 2011 में प्रकाशित

जो नहीं है उसका क्या गम

  हालॉकि शमशेर  ने इस पंक्ति के आगे 'सुरुचि' शब्द रखा, हम जो चाहें वो रख सकते हैं। अपनी तरह से इसे आगे रचा जा सकता है, जाहिर है हमारे पास 'सुरुचि' तो लगभग नहीं है तो हम अपने अप्राप्त के दुख को ही यहाँ रख सकते हैं। बहुत सारा ऐसा हमारे पास नहीं है जिसका अक्सर हमें गम होता है। किसी के पास बड़ा मकान या कार या धन-दौलत नहीं है किसी के पास प्रेमिका नहीं, किसी के पास नौकरी नहीं या फिर ज्यादा आँखें फाड़ कर देखें तो बहुसंख्यक आबादी के पास दो वक्त का भोजन नहीं, बच्चों के पास सपने हैं पर बहुतों के पास स्कूल के तय जूते नहीं।
व्यापारी के यहाँ ढेर सारी दौलत है पर सुख नहीं। अच्छी खासी नौकरी कर रहे लोगों के पास रुतबा नहीं। कलमनवीसों के पास संपादकों-प्रकाशकों की कृपा नहीं। जो दुहने में कुशल हैं उनके पास गाय भैंस नहीं ।  कुशल कृषक के पास खेती नहीं।  पढ़ने पढ़ाने में लिप्त रहने की आकांक्षा वालों पर व्यवस्था का विश्वास नहीं। यहाँ रुकना सचमुच बहुत जरूरी है क्योंकि 'नहीं है' का सिलसिला इतना व्यापक और दारुण है कि वह ही बहुत ज्यादा है जैसा सकारात्मक वाक्य छिछला लगता है।
     इन ढेर सारे 'नहीं है' के साथ भी जीवन निरंतर आगे बढता है और ऐसा होना भी चाहिए लेकिन होना यह भी चाहिए कि 'जो है' और वह भी बहुत  ज्यादा है को बार-बार याद करना। जैसे कि हमारे पास मनुष्यता के सबसे  बड़े साक्षात्‌ प्रतीक गाँधी हैं। गुलामी से मुक्ति का उदात्त वृत्तांत है। 
ढेरों अपनी-अपनी तरह मनुष्यता को बचाने में लगे शोरगुल से दूर मनुष्य हैं। अपने को गलत समझे जाने के जोखिम के बावजूद जिद भरे ईमानदार हैं। स्वप्नों को सच में बदलने का जतन करते कभी पानी बचाते, कभी बाँधों के विस्थापितों को बचाते, कभी सच को बचाते, कभी स्वप्न को बचाते ओर कुल मिलाकर मनुष्यता को बचाते मनुष्य हैं, और जिन्हें सिर्फ इस बात पर भरोसा है कि यह बचना अत्यन्त सुघर है किन्तु बेतरतीब कामों की तरह ही है।
बहुतों के पास हमसे कम संसाधन हैं और वे कमी के दुख में भी सुख के क्षण पा लेते हैं। ढेर सारी लहलहाती वनस्पतियाँ, तरह-तरह के रंग बिरंगे पक्षी हमारे बिल्कुल आसपास हैं। हमारे पास एक अकेलापन भी है और जिसे हम चाहें तो बहुत अच्छे से जी और रच सकते हैं। आत्मवृत्त से थोड़ा सा आगे निकलें तो 'नहीं' का गम बहुत छोटा है, 'है' कि समृद्धि के सामने।

जनगणना मे जाति



जाति बहुत बाद में बनी । आदिम मनुष्य सबसे पहले अपने स्थान के कारण अन्य जगहों के मनुष्यों से अलग रहा । जैसे-जैसे आबादी और समझ का विस्तार हुआ मनुष्य को अलग-अलग वर्गीकृत करने के कारण बनते चले गये। बुद्धि और कुछ भले न करवाये वह अहंकार और अलग शक्ति का मार्ग जरूर प्रद्गास्त करती है ऐसे ही मार्गों से कभी जाति नामक व्यवस्था जन्मी होगी यदि हम समाजशास्त्र की तकनीकी में न उलझें तो।
हालाँकि यह वर्गीकरण व्यवस्था बनाने के सचेत उपक्रम के अंतर्गत ही शुरू हुआ होगा पर 'विकास' जैसे दुरूह और समय की अनिवार्यता पर खरे उतरते प्रत्यय ने इसे बिल्कुल अपरिहार्य बना दिया। हो तो यह भी सकता था कि सभी मनुष्य सभी तरह के काम करें और सांझेदारी में जीवन जिएँ लेकिन सबके अलग-अलग कार्य वितरण में दिखती सुविधा ने ही यह जाति व्यवस्था बनाई होगी।
 गाँवों में कुम्हार, मोची, बढ़ई, पंडित, बनिया, जुलाहा, किसान, लुहार मिलकर गाँव को स्वायत्त इकाई बनाते थे तब तक यह ठीक था, जब कारखानों उद्योगों ने गाँव की आर्थिक स्वायत्तता को ध्वस्त किया तब जाति और उससे जुडे कर्म की अनिवार्यता भी समाप्त होना थी और वह भी ज्यादा समझदारी भरे जीवन संघर्ष में, मगर यह नहीं हुआ।
 राजनीति हमेशा सफलता का मार्ग निर्मित करती है उसे परास्त होना रास नहीं आ सकता इसके लिये भले ही दुर्नीति पर चलना पडे और इसी कारण अन्य अनेक वजहों के साथ 'जातिवाद' जैसी सरल वजह भी राजनीति ने एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल की।
 हम भले ही इस बात का मुगालता रखें कि समझदार लोग छोटे-छोटे विभाजनों से परे 'बडी दृष्टि' से जीवन जीते हैं लेकिन यह सच है कि ऐसे लोग यदि सत्ता की महत्वाकांक्षा के रास्ते चल पडे हैं तो वे 'बडी दृष्टि' की कनखियों से लाभ का अर्थशास्त्र निर्मित करते हैं। 'जाति' लाभ का अचूक और अविश्‍वसनीय शास्त्र है।
ब्राह्मण, बनिया, यादव, मुसलमान आदि भले ही निजी जीवन संघर्ष में एक दूसरे पर आश्रित हैं लेकिन अहंकार और प्रभुत्व के प्रद्गन पर सबकी तलवारें चमकती रहतीं हैं।
हमारे देश  में यदि जाति आधारित जनगणना होती है तो इससे कोई भयंकर क्रांति भी नहीं आयेगी और न ही सात्विक विनम्रता ही उपजेगी, यदि कुछ हो सकता है तो वह यह है कि एक भ्रम के मायाजाल से निकलकर हम अपनी वास्तविकता से रूबरू हो सकते हैं।

Tuesday 4 October 2011

आओ प्रधानमन्त्री बनना खेलें

                                      आओ प्रधानमन्त्री बनना खेलें

                                                        मिथलेश शरण चौबे
 यदि कोई अप्रत्याशित बवंडर नहीं आता तो केंद्र की वर्तमान यूपीए सरकार पांच साल तक राज करेगी और अगले लोकसभा चुनाव 2014 में ही होंगे|इस अवधि में भले ही मंहगाई आम जनता का जीना और भी मुश्किल कर दे,किसानों की आत्महत्याएं और बढ़ने लगें,2 जी -कामनवेल्थ घोटालों से भी बड़े भ्रष्टाचार के खेल बढ़ते चले जाएं,जनता के बीच से उठी सामाजिक परिवर्तन की आवाजों का तानाशाहीपूर्वक दमन भी सरकार के चतुर मंत्रियों और पार्टी के बड़बोले घोषित-अघोषित प्रवक्ताओं द्वारा किया जाता रहे लेकिन सरकार चलती रहेगी| इसे चाहे लोकतंत्र की मजबूरी कहा जाए या भारतीय जनता की नियति कोई फर्क नहीं पड़ता|

अब  जबकि 2014 तक का समय एक बड़े मैदान की तरह फैला है क्यों न हम इस दौरान प्रधानमन्त्री बनना खेलें|हमारे देश में अधिकांश मुख्यमंत्री पुनः सत्ता में आना अपना सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य बताते हैं|तमाम राजनैतिक पार्टियां किसी भी कीमत पर सत्ता पर काबिज होना चाहती हैं|
मुख्यमंत्री और पार्टियां अपने वर्तमान कर्तव्यों से किनारा कर आगामी चुनाव पर ऐसे ध्यान केन्द्रित करती हैं जैसे चुनाव जीतकर सत्ता हासिल करना सिर्फ इसलिए जरूरी है कि अगली बार फिर चुनाव जीतकर सत्ता हासिल कि जा सके|मुख्यमंत्रियों की राज्य के प्रतिसुशासन की जवाबदेही और राजनैतिक पार्टियों के सामाजिक सरोकार तथा आम जनता की पक्षधरता सिरे से गायब रहती है|
यदि ऐसा नहीं होता तो केंद्र की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा अभी से प्रधानमन्त्री बनने के जुमले में इस कदर नहीं घिरती|भ्रष्टाचार,मंहगाई जैसे मुद्दों पर लगातार आम जनता को छलती केंद्र सरकार की करतूतों के खिलाफ विपक्ष को जिस नैतिक जिम्मेवारी से सरकार को कटघरे में खड़ा करना था तथा अपनी पार्टी शासित राज्यों में इन मुद्दों पर एक साफ़ आइना केंद्र को दिखाना था,भाजपा वह नहीं कर पा रही है|बल्कि केंद्र सरकार से असंतुष्ट जनता को वह चुनाव का खाद्य पदार्थ समझकर अपनी अगली सरकार बनने का अपर्याप्त अनुमान लगा रही है|
अब जाहिर है कि सत्ता मिलेगी तो किसी न किसी को प्रधानमन्त्री भी बनना है इसलिए शुरू हुआ 'आओ प्रधानमन्त्री बनना खेलें' जैसा असमय होता लज्जास्पद खेल|कुशल राजनेता इस छोटी सी बात को भी भूल जाते हैं कि अब कांग्रेस और भाजपा नहीं यूपीए और एनडीए की सरकारें बनती हैं,बन सकती हैं|अब इतना भूलते हैं तो कुछ-कुछ और भूलने लगते हैं जैसे लालकृष्ण आडवाणी अपनी उम्र|
यदि आडवाणी नहीं तो कौन के उत्तर में एक राज्य में विकास का झंडा लहराने के दम पर नरेन्द्र मोदी,लोकसभा में मोर्चा संभालती सुषमा स्वराज,राज्यसभा में पार्टी और पार्टी में खुद को संभालते अरुण जेटली,किसान नेता की छवि भुनाते राजनाथ सिंह जैसे नाम गूंजते हैं|
हालांकि अभी इनकी गूंज आपस में ही टकराती है और दूसरे सक्षम मौन का निरादर भी करती है जैसे जसवंत सिंह,यशवंत सिन्हा,नीतीश कुमार या फिर आरएसएस द्वारा निर्देशित कोई अन्य जाना-अनजाना|    ऐसे में जब एनडीए अर्थात भाजपा के अनेक चेहरे प्रधानमन्त्री बनना खेल रहे हैं,यूपीए अर्थात कांग्रेस से सिर्फ एक खिलाड़ी आगामी मैदान पर है,परिवार प्रदत्त हैसियत के दम पर|
हालांकि हमें ऐसे खेल को देखना भी बंद करना चाहिए जिसमें मंहगाई,भ्रष्टाचार,किसानों की आत्महत्या,आतंकवाद,असफल अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों पर व्यवस्थित पारदर्शी नीतियों और समृद्ध खुशहाल सुरक्षित देश के लिए बृहद और स्पष्ट कार्ययोजना के प्रकटीकरण के बजाय सर्वोच्च पद को हथियाना ही एकमात्र लक्ष्य हो|लेकिन हम देश की अभिशप्त जनता न तो आंखें और कान बंद कर सकते हैं और न ही इस खेल में लिप्त राजनेताओं और पार्टियों को समझा सकते हैं कि बंद करो यह -'आओ प्रधानमन्त्री बनना खेलें'|