Wednesday 2 November 2011

जनगणना मे जाति



जाति बहुत बाद में बनी । आदिम मनुष्य सबसे पहले अपने स्थान के कारण अन्य जगहों के मनुष्यों से अलग रहा । जैसे-जैसे आबादी और समझ का विस्तार हुआ मनुष्य को अलग-अलग वर्गीकृत करने के कारण बनते चले गये। बुद्धि और कुछ भले न करवाये वह अहंकार और अलग शक्ति का मार्ग जरूर प्रद्गास्त करती है ऐसे ही मार्गों से कभी जाति नामक व्यवस्था जन्मी होगी यदि हम समाजशास्त्र की तकनीकी में न उलझें तो।
हालाँकि यह वर्गीकरण व्यवस्था बनाने के सचेत उपक्रम के अंतर्गत ही शुरू हुआ होगा पर 'विकास' जैसे दुरूह और समय की अनिवार्यता पर खरे उतरते प्रत्यय ने इसे बिल्कुल अपरिहार्य बना दिया। हो तो यह भी सकता था कि सभी मनुष्य सभी तरह के काम करें और सांझेदारी में जीवन जिएँ लेकिन सबके अलग-अलग कार्य वितरण में दिखती सुविधा ने ही यह जाति व्यवस्था बनाई होगी।
 गाँवों में कुम्हार, मोची, बढ़ई, पंडित, बनिया, जुलाहा, किसान, लुहार मिलकर गाँव को स्वायत्त इकाई बनाते थे तब तक यह ठीक था, जब कारखानों उद्योगों ने गाँव की आर्थिक स्वायत्तता को ध्वस्त किया तब जाति और उससे जुडे कर्म की अनिवार्यता भी समाप्त होना थी और वह भी ज्यादा समझदारी भरे जीवन संघर्ष में, मगर यह नहीं हुआ।
 राजनीति हमेशा सफलता का मार्ग निर्मित करती है उसे परास्त होना रास नहीं आ सकता इसके लिये भले ही दुर्नीति पर चलना पडे और इसी कारण अन्य अनेक वजहों के साथ 'जातिवाद' जैसी सरल वजह भी राजनीति ने एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल की।
 हम भले ही इस बात का मुगालता रखें कि समझदार लोग छोटे-छोटे विभाजनों से परे 'बडी दृष्टि' से जीवन जीते हैं लेकिन यह सच है कि ऐसे लोग यदि सत्ता की महत्वाकांक्षा के रास्ते चल पडे हैं तो वे 'बडी दृष्टि' की कनखियों से लाभ का अर्थशास्त्र निर्मित करते हैं। 'जाति' लाभ का अचूक और अविश्‍वसनीय शास्त्र है।
ब्राह्मण, बनिया, यादव, मुसलमान आदि भले ही निजी जीवन संघर्ष में एक दूसरे पर आश्रित हैं लेकिन अहंकार और प्रभुत्व के प्रद्गन पर सबकी तलवारें चमकती रहतीं हैं।
हमारे देश  में यदि जाति आधारित जनगणना होती है तो इससे कोई भयंकर क्रांति भी नहीं आयेगी और न ही सात्विक विनम्रता ही उपजेगी, यदि कुछ हो सकता है तो वह यह है कि एक भ्रम के मायाजाल से निकलकर हम अपनी वास्तविकता से रूबरू हो सकते हैं।

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