Wednesday 2 November 2011

जो नहीं है उसका क्या गम

  हालॉकि शमशेर  ने इस पंक्ति के आगे 'सुरुचि' शब्द रखा, हम जो चाहें वो रख सकते हैं। अपनी तरह से इसे आगे रचा जा सकता है, जाहिर है हमारे पास 'सुरुचि' तो लगभग नहीं है तो हम अपने अप्राप्त के दुख को ही यहाँ रख सकते हैं। बहुत सारा ऐसा हमारे पास नहीं है जिसका अक्सर हमें गम होता है। किसी के पास बड़ा मकान या कार या धन-दौलत नहीं है किसी के पास प्रेमिका नहीं, किसी के पास नौकरी नहीं या फिर ज्यादा आँखें फाड़ कर देखें तो बहुसंख्यक आबादी के पास दो वक्त का भोजन नहीं, बच्चों के पास सपने हैं पर बहुतों के पास स्कूल के तय जूते नहीं।
व्यापारी के यहाँ ढेर सारी दौलत है पर सुख नहीं। अच्छी खासी नौकरी कर रहे लोगों के पास रुतबा नहीं। कलमनवीसों के पास संपादकों-प्रकाशकों की कृपा नहीं। जो दुहने में कुशल हैं उनके पास गाय भैंस नहीं ।  कुशल कृषक के पास खेती नहीं।  पढ़ने पढ़ाने में लिप्त रहने की आकांक्षा वालों पर व्यवस्था का विश्वास नहीं। यहाँ रुकना सचमुच बहुत जरूरी है क्योंकि 'नहीं है' का सिलसिला इतना व्यापक और दारुण है कि वह ही बहुत ज्यादा है जैसा सकारात्मक वाक्य छिछला लगता है।
     इन ढेर सारे 'नहीं है' के साथ भी जीवन निरंतर आगे बढता है और ऐसा होना भी चाहिए लेकिन होना यह भी चाहिए कि 'जो है' और वह भी बहुत  ज्यादा है को बार-बार याद करना। जैसे कि हमारे पास मनुष्यता के सबसे  बड़े साक्षात्‌ प्रतीक गाँधी हैं। गुलामी से मुक्ति का उदात्त वृत्तांत है। 
ढेरों अपनी-अपनी तरह मनुष्यता को बचाने में लगे शोरगुल से दूर मनुष्य हैं। अपने को गलत समझे जाने के जोखिम के बावजूद जिद भरे ईमानदार हैं। स्वप्नों को सच में बदलने का जतन करते कभी पानी बचाते, कभी बाँधों के विस्थापितों को बचाते, कभी सच को बचाते, कभी स्वप्न को बचाते ओर कुल मिलाकर मनुष्यता को बचाते मनुष्य हैं, और जिन्हें सिर्फ इस बात पर भरोसा है कि यह बचना अत्यन्त सुघर है किन्तु बेतरतीब कामों की तरह ही है।
बहुतों के पास हमसे कम संसाधन हैं और वे कमी के दुख में भी सुख के क्षण पा लेते हैं। ढेर सारी लहलहाती वनस्पतियाँ, तरह-तरह के रंग बिरंगे पक्षी हमारे बिल्कुल आसपास हैं। हमारे पास एक अकेलापन भी है और जिसे हम चाहें तो बहुत अच्छे से जी और रच सकते हैं। आत्मवृत्त से थोड़ा सा आगे निकलें तो 'नहीं' का गम बहुत छोटा है, 'है' कि समृद्धि के सामने।

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