इरोम की उम्मीद
मिथलेश शरण चौबे
दिल्ली आई थी वह,पिछली बार की तरह फिर उम्मीद
लेकर|नाक में लटकती आहार नली और बिखरे हुए बालों की अपनी तेरह बरस पुरानी पहचान के
साथ|देश में चुनाव होते हैं,सरकारे बनती हैं,वह आग्रह करती है और अपनी स्थगित
उम्मीद के साथ वापस अपने संघर्ष के अकेलेपन में लौट जाती है|दुनियादारी के जीवन से
बहुत दूर एक अदम्य संघर्ष का पर्याय बन चुके अपने एकाकी जीवन में|कैसी होती हैं वे
ज़िदें जिनके लिए जीवन को दाव पर लगाकर अडिग रहते हुए अपने संघर्ष को एक मुकम्मल
वजूद देना पड़ता है,इरोम शर्मिला साक्ष्य है उनका|इरोम के संघर्ष की व्यापक कथा हमारी
युवा पीढ़ी के लिए अनायास ही बौना कर देती है|अपनी बेहद निजी व भौतिक
महत्त्वाकांक्षाओं में दिन रात सिर खपाते लोगों से अलग कुछ शख्स ऐसे भी होते
हैं,इरोम जैसे,अपने किंचित यत्नों की पराजय पर विषादग्रस्त होते युवाओं की सोच को
शर्माते इरोम के इरादे|
जनपक्षधर मुद्दों पर
संघर्षरत लोगों की अनसुनी गाथा नयी नहीं है|अतीत और वर्तमान के अनेक जीवंत उदाहरण
इनके साथ हैं|सामान्यजन के लिए न्याय की आर्त्त पुकार को अनसुना करना सत्ताओं का
स्वभाव होता है,इनसे वह लोकप्रियता व समर्थन नहीं जुटता जिनसे चुनाव की राजनीति
साधी जा सके|इनको नजरंदाज करना ऐसे ही अनेक जनहितैषी मुद्दों के पैदा होने की
संभावना को ही नष्ट करना है|यह एक ऐसी रणनीति है जिसे बहुत सजग रहकर ही आप जान
सकते हैं|सत्ताएं बहुधा ऐसे निर्णय लेने में दिलचस्पी दिखाती हैं जो सामान्य पीड़ित
जन को सचमुच की राहत देने के बजाए सत्ता की लोकप्रियता का ढिंढोरा ज्यादा पीटें |यदि
यह सच नहीं है तो आखिर क्यों गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को वाजिब अनाज की
उपलब्धता से ध्यान हटाकर कोई सरकार बुजुर्गों को तीर्थयात्राएं कराये|भुखमरी,जातिवाद
व सामंती वर्चस्व के खौफ़ को मिटाने के तरीकों पर काम करने के बजाए कुछेक हजार
विद्यार्थियों को लेपटाप बांटे|बुनियादी सुविधाओं की समुचित आपूर्ति के बजाए
बड़े-बड़े पूंजीपतियों को निवेश का निमंत्रण दे|स्त्रियों पर बर्बरता की घटनाओं पर
ज़रूरी कार्यावाही के बजाए बेतुके-अप्रासंगिक-अमानवीय बयानों से खुद की विफलता
छुपाये|
मणिपुर की मानवाधिकार
कार्यकर्ता इरोम शर्मिला पिछले तेरह बरस से भूख हड़ताल परहैं,अपनी अट्ठाईस बरस की
उम्र से| 1958 से अरुणाचल प्रदेश,मेघालय,मणिपुर,असम,नागालैंड, मिजोरम,त्रिपुरा
में क्रियाशील ‘सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम 1958’जिसे
अंग्रेजी संक्षिप्ति में अफस्पा कहते हैं,को हटाने की मांग के लिए इरोम की यह भूख
हड़ताल है|इस क़ानून के तहत सुरक्षा बलों को किसी को भी देखते ही गोली मारने या बिना
वारंट के गिरफ्तार करने का अधिकार है|4 नवंबर 2000 को इरोम की भूख हड़ताल के ठीक दो दिन पहले इसी
क़ानून के तहत सुरक्षा बलों की गोलीबारी में दस लोग मारे गए थे जिसमें 62 वर्षीय वृद्ध महिला लेसंगबम इबेतोमी व बहादुरी के
लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चंद्रमणि जैसे निपट निर्दोष शामिल थे|इस
नृशंसता ने इरोम को दहला दिया और उन्होंने हजारों निर्दोषों की मौत के जिम्मेदार
इस क़ानून को हटाने के लिए संघर्ष का रास्ता अपनाया|
संसार की सबसे लम्बी
भूख हड़ताल कर रही,मणिपुर में आयरन लेडी नाम से विख्यात इरोम को परिवारजनों से
मिलने पर पाबंदी है और उनपर आत्महत्या की कोशिश का मुकदमा भी चला दिया गया
है|गांधी को अपना आदर्श मानने वाली इरोम के संघर्ष को वैसे तो लाखों लोगों का सलाम
हासिल है लेकिन जिस जघन्य क़ानून से निजात दिलाने के लिए वे संघर्षरत हैं वह किसी
भी केंद्र सरकार के लिए चिंतनीय नहीं बन सका|1990 से जम्मू कश्मीर में
भी क्रियाशील यह क़ानून अब तक हजारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुला चुका है|यह सही
है कि पूर्वोत्तर के सात राज्यों व जम्मू कश्मीर में अनेक अलगाववादी संगठनों की
हिंस्र-क्रियाशीलता के कारगर प्रतिरोध के लिए यह क़ानून अस्तित्व में आया परन्तु अब
तक की इस क़ानून की परिणति यही प्रश्न छोड़ती है कि क्या क़ानून बेगुनाहों की मौत के
लिए बनते हैं? इरोम पिछली बार की तरह ही इस बार भी केंद्र की नयी सरकार के प्रति
उम्मीद रखती हैं|हम इरोम के संघर्ष की तरह ही उनकी उम्मीद के साथ भी हैं|
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