Tuesday 14 April 2015

उपयोग के गांधी






             मिथलेश शरण चौबे

             सबके अपने-अपने गांधी हैं|विरल करने की अहमन्य चेष्टाओं के बावजूद वे निरन्तर सघन होते जा रहे हैं| यदि लाखों के लिए उनका होना एक तरह से जीवन की सार्थक सम्भावना है तो ऐसे भी बहुत है जो उन्हें कोसने का कर्म अपने बचे रहने की अपरिहार्यता की तरह निभाते हैं|इन दोनों के अलावा ऐसे भी लोग हैं जिन्हें किसी उदात्त की उपस्थिति या फिर क्रूरतापूर्वक उसकी निंदा से कोई फर्क नहीं पड़ता,जब जहां स्थिति अनुकूल बनती हो उसी करवट बैठ जाना उनका एकमात्र निष्कर्ष होता है| हालांकि लगता तो ऐसा ही है कि गांधी इन्हीं सब के बीच आवाजाही कर रहे हैं पर उनकी व्याप्ति इतनी व्यापक है कि होने न होने के परे उनकी उपस्थिति दिशा और काल की अवधियों का विनम्र अतिक्रमण कर हर उस जगह है जहां मनुष्यता की आकांक्षा जीवित है|वे इतने सरल हैं कि मैले फटे कपड़ों में अधढके साधारण लोगों के पास एकदम से हरसमय उपस्थित हैं और इतने कठिन कि बार-बार उनकी तस्वीरों पर माला पहनाने वालों व हर समय उनका नाम जपकर अपनी साख बनाने में लगे लोगों की तमाम चेष्टाओं के बाद भी वे वहां से नदारद हैं| धर्म,राजनीति,साहित्य,विचार,संस्कृति,अर्थशास्त्र,सामाजिक उत्कर्ष  आदि सभी के लिए वे दशकों से अनिवार्य रहे हैं|वे भले ही एक साथ सरल और कठिन हों लेकिन अब वे उपयोगी इतने ज्यादा हो चले हैं कि उनके बिना किसी तरह की राजनैतिक और समूची सांस्कृतिक हैसियत का होना बहुधा संभव नहीं लगता|
            जो लोग उनके नाम पर सफाई अभियान चलाते हैं उन्हीं के यहां सबसे ज्यादा वैचारिक गंदगी है|वे गांधी के हत्यारे का मंदिर बनाना चाहते हैं,बार-बार उसका नामोल्लेख करते हैं|उन्होंने गांधी के नेहरु लगाव की दुर्व्याख्या कर सरदार पटेल को अपना पक्ष बनाने की कोशिश की है|वे हमेशा अपने कमतर और आजादी के लिए अनुपयोगी साबित नेताओं को गांधी के ऊपर रखने की ज्यादिती करते हैं|उनके पारिवारिक संगठन नित नए निंदा प्रलाप किये जाते हैं और फिर मीडिया में विपरीत खबर से बचने के लिए कोई एक क्षति नियंत्रक बयान देकर मुक्ति पा लेते हैं|स्वाधीनता संघर्ष में अपनी भूमिका का प्रश्न उन्हें तिलमिलाकर गांधी निंदा के अचूक लेकिन बेहया अस्त्र की पुनरावृत्ति की ओर ले जाता है| देश विभाजन और भगत सिंह की फांसी पर गांधी की क्रियाशीलता का दूषित कुपाठ उनके प्रशिक्षणों का जरूरी हिस्सा है|
          गांधी के नाम पर अपने समूचे अस्तित्व को दिखाने की कोशिश करते हुए कुछ ऐसे भी हैं जिनका काम गांधी के बगैर चलता ही नहीं|उनके यहां गांधी एक अदद जरूरी औपचारिकता हैं जिनकी दुहाई के बिना कुछ भी नहीं हो सकता|गांधी के विचार,मूल्य,शैली,सौजन्य से दूर तक नाता नहीं रखने के बावजूद उनकी प्रतिमूर्ति के असल प्रतीक बनना ही उनकी एकमात्र इच्छा है|इन दोनों के अलावा भी बहुतों को गांधी का उपयोग है|किसी मुद्दे पर जनसमर्थन हासिल करने के बड़े प्रतीक के रूप में गांधी की तस्वीर,खादी,उनकी बातें,उन्हें प्रिय रहे गीत-संगीत का सहारा लेना जरूरी-सा हो गया है|खुद गांधी नहीं जानते होंगे कि वे अदृश्य उपस्थिति में कितने उपयोगी हो सकते हैं|
          एक अनुपस्थित का इस कदर उपस्थिति होना कुछ लुभाता-सा है|जीवन भर अपने से और देश व मनुष्यता के दुश्मनों से अत्यंत मानवीयता के साथ संघर्ष करते रहे गांधी को लेकर आज भी कितना संघर्ष है|वे जिन शोषित,वंचित,पीड़ित लोगों के पास रहना चाहते हैं और रहते भी हैं,उन्हें ही उनकी निर्विकार जरूरत है|गांधी के पास ही उनके लिए मार्मिक संवेदना और पीड़ा हरने की अनिवार्य बेचैनी  है|इन लोगों से गांधी को छीनकर अपने पक्ष-प्रतिपक्ष की तरह इस्तेमाल करने में लगे लोगों को गांधी के होने का वास्तविक अर्थ ही शायद नहीं पता|गांधी जितने सघन होते जा रहे हैं उसके ही समानांतर जन सामान्य की समस्याएं ज्यादा जटिल और खौफनाक होती जा रही हैं|गांधी को यदि गांधी की तरह न समझकर उपयोग की तरह बरता जाएगा तो उनकी उपस्थिति ऐसी ही रहेगी अन्यथा मनुष्य मात्र के उत्कर्ष का एक बेहद नैतिक विचार उनके यहां मिलता है|


                                                            

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