Saturday 30 August 2014

भाषिक दायित्त्वबोध












मिथलेश शरण चौबे


अंग्रेजी के वर्चस्व की समयानुकूल व वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता की अनेक तर्कों से दुहाई देते हुए लोग जानबूझकर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की अवहेलना करने लगते हैं|हालांकि भाषाएं अपने साहित्य और बोलचाल की विपुलता से ही अपना व्यापक परिसर बनाती हैं फिर भी अपनी भाषाओं को लेकर सत्ताओं का गैरजिम्मेवार व उदासीन रवैया दूसरी भाषाओं के आक्रान्ताओं को मजबूत अवसर ही प्रदान करता है|अधिकांश सूचना माध्यम भी हिंदी की घोषित दुहाई देकर अंग्रेजीपरस्ती के कुशल प्रस्तोता बनकर मुग्ध हैं|कुछ तो अंग्रेजी के पैरवीकार की तरह पेश आ रहे हैं|अस्सी करोड़ लोगों की अभिव्यक्ति के माध्यम का कुशल निर्वाह करने वाली हिंदी के ऊपर दो लाख लोगों द्वारा प्रयुक्त अंग्रेजी को वरीयता देने की कुत्सित चेष्टा की जा रही है|पैरवीकारों को लगता है कि अब हमें सशक्त बन जाना चाहिए,जिसका एकमात्र फौरी तरीका अंग्रेजी की सत्ता को स्वीकारना और व्यवहारतः उसका प्रयोग करना है|


दरअसल हम भारतीयों की आत्मसमर्पण की जल्दबाजी ने भाषा सहित अपनी किसी भी राष्ट्रीय अस्मिता के प्रति वह दृढ़ता नहीं बनने दी जो हमारे व्यक्तित्व से निःसृत हो|हम अपनी सांस्कृतिक समृद्धियों पर गुमान तो जरूर करते हैं लेकिन उन्हें सहेजने का कर्म अन्यों पर थोपते हैं|यह खुद के अलावा दूसरे पर थोपने की धारणा इतनी अधिक बलवती है कि हर नागरिक का जैसे कोई दायित्त्व ही नहीं बनता|दूसरी तरफ़ दूसरी संस्कृतियों के प्रति भी हमारा अविचारित आकर्षण है|हम अंग्रेजी बोलने पर गौरवान्वित होते हैं,अंग्रेजी में लिखना और विचार करना पसंद करते हैं परन्तु हम यह भूल जाते हैं कि दूसरी भाषा में अभिव्यक्ति के समय हम अनायास ही उसकी भाषिक शक्ति से अनुशासित होने लगते हैं,उसकी सांस्कृतिक संरचना में शामिल हो जाते हैं|मातृभाषा में सीखना व व्यक्त करना सबसे ज्यादा सुगम व रचनात्मक होने के बारे में तमाम विज्ञों के मतैक्य के बावजूद क्रियान्वयन के स्तर पर दूसरी भाषा का अतिरिक्त आग्रह चौंकाता है|


बाजार के आक्रमण ने हमें जो उपभोक्तावादी मनुष्य बना दिया उससे हम अपनी भाषा को भी सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही मान बैठे,भाषा के साथ मनुष्य का जो गहरा सम्बन्ध होना चाहिए वह नहीं रहा|वह अंतर्मन से प्रकट न होकर सामान्य जरूरत की तरह माध्यम बनी| जाहिर है ऐसे सूचना समय में इस काम के लिए  अंग्रेजी ज्यादा मुफीद लगना थी क्योंकि वह बाजार के अनुकूल है|नतीजन हिंदी हमें अपर्याप्त लगने लगी और हमने उसके  इस्तेमाल में अंग्रेजी का अपनी अल्प समझ से समावेश कर एक खिचड़ी रूप ईजाद कर लिया|विज्ञापन,राजनीति और पत्रकारिता ने अपने श्रेष्ठ होने के प्रदर्शन,सूचना के प्रलोभन और दूसरे के विरोध में तर्क के सुविधानुकूल प्रयोगों से भाषा का एक अस्वाभाविक-सा रूप निर्मित किया| महात्मा गांधी और राम मनोहर लोहिया को एम जी व आर एम एल में तब्दील करने वाली बेमानी संक्षिप्तियों के साथ ही इंटरनेट के हिंग्लिश प्रयोगों ने भाषा का एक और ही विखंडित पाठ ईजाद कर डाला|विडम्बना यह है कि हिंदी से ही जीविकोपार्जन करने वाले तक ऐसा करने में पीछे नहीं रहे बल्कि वे तो कला और यथार्थ के नवाचार व निपट भाष्य की कीमत पर यह सब कर रहे हैं|


हमारे देश में ही असमिया,बांग्ला,तमिल आदि भाषाओं के प्रति स्थानीय लोगों की चेतना ही इस वैश्वीय दिखने के गैरजरूरी दबाव के बावजूद उन्हें सर्वप्रमुख बनाए हुए है| देश से बाहर रूस,जर्मनी,फ्रांस आदि अनेक देशों में अंग्रेजी दूसरी भाषा के रूप में भी स्वीकृति नहीं पा सकी|हमारे देश के सुदूर ग्रामीण इलाकों की  अनेक प्रतिभाएं अंग्रेजी में निपुण न होने के कारण अलक्षित रह जाने को अभिशप्त रहती है वहीं संसार के अनेक देशों में यह भी सम्भव है कि कोई व्यक्ति अपने अनुशासन का राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मूर्धन्य हो और उसे अंग्रेजी में चार वाक्य भी बोलना न आते हों| भाषाएं आपस में एक दूसरे को समृद्ध करती हैं,हम ही उनकी महत्ता को न पहचानकर उन्हें परस्पर विरोधी भूमिका में ले आते हैं| अंग्रेजी को किसी भी अन्य भाषा की तरह जानना और विश्व में ज्ञान, सूचना व बाजार के  सम्प्रेषण के लिए  कुछ ज्यादा ही चलन में होने के कारण प्रमुखता से जान लेना बहुत अच्छी बात है,लेकिन हिंदी भाषा की अवहेलना कर उसके अवमूल्यन की स्थिति तक प्रयोग कर अंग्रेजी पर गौरवान्वित होना एक नितांत असांस्कृतिक और अनैतिक कर्म है| इस अतिशयता से दूर,  हिंदी को अच्छी तरह जानते हुए हमें उसकी भाषिक शक्ति से स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहिए,दायित्त्वबोध के साथ ही यही रचनात्मक भी बन सकेगा|  


                                                                                                              


  



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