Sunday 18 January 2015

हाशिए के लोग





          मिथलेश शरण चौबे

          हमारे समय में राजनीति की हैसियत ने कुछ ज्यादा ही केन्द्रीयता हासिल कर ली है किन्तु इस कदर कि उसके अलावा अन्य सभी हाशिए पर फेक दिए जाएं  एक बड़े संकट का सबब है और इसलिए चिंतनीय है|शासन की सूत्रधार राजनीति के नुमाइंदे पहले अनेक सामाजिक सरोकारों से गहरे संबद्ध रहते थे और उनसे मिली पहचान पर गौरवान्वित भी | आज जैसी आक्रान्त छवि राजनीति की नहीं रही|कोई शिक्षाविद,साहित्यकार,समाजसेवी,अर्थशास्त्री,कानूनविद,वैज्ञानिक,चिकित्सक, नौकरशाह अपनी मूल पहचान से इतर राजनैतिक सक्रियता का निर्वाह करते थे और इसी वजह से इन सभी पहचानों की गरिमा के लिए राजनीति के पोषण की जरूरत नहीं रही|समाज में इनकी कर्तव्यनिष्ठा के किस्से भी प्रचलित रहते थे| राजनीति में इन तमाम क्षेत्रों से लोगों का प्रवेश सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी सामाजिकता के सघन व निर्णययुक्त सक्रिय निर्वाह की मंशा से होता था और तब भी उनका समाज के अन्यान्य क्षेत्रों के प्रति आदर भाव कायम रहता था|राजनीति में प्रवेश, पूर्व सामाजिक सक्रिय पृष्ठभूमि के बिना सम्भव नहीं था|स्वार्थों को सामाजिक कर्मों के ऊपर रहने की जगह जैसे-जैसे मिलती चली गयी और राजनीति में उसके पोषण की सर्वाधिक खुली जगह सम्भव हुयी,राजनीति के सारे नैतिक रहे तकाजे लुप्त होते गए| अब जबकि मीडिया में उपस्थिति से हैसियत के पैमाने तय होते और बदलते हैं स्वाभाविक ही राजनीति की दिखाई देती सक्रियता अन्य अनेक लक्षित-अलक्षित सक्रियताओं पर हावी होती जा रही है|ऐसा मान लिया गया है कि जो कुछ हो रहा है वह राजनीति से ही घटित है या कि हर तरह की तरक्की-खुशहाली राजनीति के बगैर सम्भव नहीं है और शासन व राजनीति से पोषित व उपकृत हुए बगैर सभी के लिए पहचान का संकट है|

           यही वजह है कि जिस मीडिया का  हम सामना करते हैं वह राजनीति आक्रान्त मीडिया है और राजनीति में जो सत्ता में है वही मीडिया के लिए सक्रियता का पर्याय है और वही खबर में है शेष खबर-शक्ति की दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं हैं|सत्ता का दबदबा अधिकांश मीडिया में एकदम स्पष्ट दिखाई देता है,कम ही इससे अप्रभावित हैं|आखिर क्या वजह है कि देश में सक्रिय हजारों जनसंघर्षों की  गाथाएं पाठकों-दर्शकों तक अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं पहुंचती और सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष को सीबीआई से मिली राहत की खबर प्रमुखता पाती है|अनेक पर्यावरणविदों के उल्लेखनीय कामों को चलताऊ तरह से दिया जाता है और  राजनैतिक षड्यंत्रों में संलग्न नेताओं का वीरोचित वर्णन मिलता है|इरोम शर्मिला के अनशन का पंद्रहवे वर्ष में प्रवेश एक मामूली खबर नहीं बन पाता जबकि साक्षी,साध्वी निरंजन व प्राची के अनर्गल समाजविरोधी प्रलाप लहर की तरह फैलते जाते हैं|अंधविश्वास,शोषण,धार्मिक पाखंडों के विरुद्ध संघर्षरत और इस वजह से मार दिए जाते प्रतिबद्धों की प्रशंसा के बजाए घृणित कामों को करते लोग सुर्खियां बटोर लेते हैं |हजारों-लाखों विस्थापितों ,आत्महत्या करते किसानों, मजदूरी की तलाश में भटकते बेघरों के जीवन की मर्मभरी व्यथाएं हाशिए पर डाल दी जाती हैं और अपने रसूख के दम पर बच निकलते नेता-अभिनेता क़ानून के आगे मुस्कराते हुए खबर पर हावी हो जाते हैं|अपने अध्यवसाय से अपने-अपने रचनात्मक कर्मों में लीन कलावंतों के सृजन,वैचारिक नजरिये, बेहतर जीवन के स्वप्न,मनुष्यता को लेकर आकांक्षाएं जानने की चेष्टा नहीं की जाती,जिससे शायद समाज में कुछ तो सकारात्मक की ओर जाने की प्रेरणा मिल सकती है|इसके बजाए दूसरों का अतिक्रमण कर अपनी सत्ता पसारते अहमन्य लोगों के जीवन पर झूठ की परते चढ़ाकर पेश करने में कलम और कैमरे कतारबद्ध हो जाते हैं|चार-पांच बच्चों  को पैदा करने की नसीहत में भड़कते लोग विमर्श पर छाये रहते हैं और वे हजारों लोग जो तमाम कठनाइयों में रहकर जनसंख्या नियंत्रण जागरूकता के लिए क्रियाशील हैं,अनचीन्हे रह जाते हैं|

           एक नकारात्मक दुनिया फैलकर हमारी जीवंत,संघर्षरत,सपनों-आकांक्षाओं भरी वास्तविक दुनिया पर इस कदर छा जाती है कि हमें वही सच दिखाई देने लगती है|हम ही कहां इस धुंधलके को हटाने की कोशिश करते हैं|दूसरों पर अभियोग लगाकर मुक्त नहीं हुआ जा सकता|इस अंधेरे में कहीं हमारा धुआं भी तो शामिल नहीं है?


                                                                                                                      


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